तत्त्वरोचत दैत्यस्य तत्रान्ये येऽसुराधिपा: ।
शम्बरोऽरिष्टनेमिश्च ये च त्रिपुरवासिन: ॥ ३१ ॥
शब्दार्थ
तत्—वे सारे शब्द; तु—लेकिन; अरोचत—अत्यन्त रुचिकर थे; दैत्यस्य—बलि महाराज के लिए; तत्र—तथा; अन्ये—अन्य; ये—जो; असुर-अधिपा:—असुरों के प्रधान; शम्बर:—शम्बर; अरिष्टनेमि:—अरिष्टनेमि; च—भी; ये—अन्य जो; च—तथा; त्रिपुर-वासिन:—त्रिपुर के सारे निवासी ।.
अनुवाद
राजा इन्द्र द्वारा रखे गये प्रस्तावों को बलि महाराज ने, उनके सहायकों ने, जिनमें शम्बर तथा अरिष्टनेमि प्रमुख थे एवं त्रिपुर के अन्य सारे निवासियों ने तुरन्त ही मान लिया।
तात्पर्य
इस श्लोक से प्रकट होता है कि उच्च लोकों में भी इस लोक में व्याप्त राजनीति, राजनय, ठगी की प्रवृत्ति तथा दो पक्षों के बीच पाये जाने वाले व्यक्तिगत तथा सामाजिक समझौते पाये जाते हैं। देवतागण बलि महाराज के पास अमृत बनाने का प्रस्ताव लेकर गये थे और असुरों ने इसे यह सोचते हुए तुरन्त स्वीकार कर लिया कि देवता पहले से निर्बल हैं, अतएव जब अमृत निकलेगा तो असुर उसे प्राप्त करके अपने निजी
कार्य में ला सकेंगे। निस्सन्देह, देवताओं के भी मनोभाव ऐसे ही थे। अन्तर इतना ही था कि विष्णु भगवान् देवताओं के पक्ष में थे क्योंकि वे उनके भक्त थे जबकि असुर विष्णु की कोई परवाह नहीं करते थे। सारे ब्रह्माण्ड में ही दो दल हैं—विष्णु दल या ईश्वर भावनाभावित दल तथा ईश्वरविहीन दल। ईश्वरविहीन दल कभी भी सुखी या विजयी नहीं होता जबकि ईश्वर-भावनाभावित दल सदैव सुखी तथा विजयी होता है।
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All glories to saints and sages of the Supreme Lord
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥