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श्लोक |
मथ्यमानात् तथा सिन्धोर्देवासुरवरूथपै: ।
यदा सुधा न जायेत निर्ममन्थाजित: स्वयम् ॥ १६ ॥ |
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शब्दार्थ |
मथ्यमानात्—मथे जाने से; तथा—इस प्रकार से; सिन्धो:—क्षीरसागर से; देव—देवताओं का; असुर—तथा असुरों का; वरूथ पै:—श्रेष्ठतम के द्वारा; यदा—जब; सुधा—अमृत; न जायेत—बाहर नहीं आया; निर्ममन्थ—मन्थन किया; अजित:—भगवान् ने; स्वयम्—स्वयं ।. |
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अनुवाद |
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जब श्रेष्ठतम देवताओं तथा असुरों के द्वारा इतना उद्यम करने पर भी क्षीरसागर से अमृत नहीं निकला तो स्वयं भगवान् अजित ने समुद्र को मथना प्रारम्भ किया। |
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