मथ्यमानेऽर्णवे सोऽद्रिरनाधारो ह्यपोऽविशत् ।
ध्रियमाणोऽपि बलिभिर्गौरवात् पाण्डुनन्दन ॥ ६ ॥
शब्दार्थ
मथ्यमाने—मन्थन के बीच में; अर्णवे—क्षीरसागर में; स:—वह; अद्रि:—पहाड़; अनाधार:—बिना किसी आधार के; हि— निस्सन्देह; अप:—जल में; अविशत्—डूब गया; ध्रियमाण:—पकड़ा हुआ; अपि—यद्यपि; बलिभि:—अत्यन्त बलशाली सुरों तथा असुरों द्वारा; गौरवात्—भारी होने के कारण; पाण्डु-नन्दन—हे पाण्डुपुत्र (महाराज परीक्षित) ।.
अनुवाद
हे पाण्डुवंशी! जब क्षीरसागर में मन्दर पर्वत को इस तरह मथानी के रूप में प्रयुक्त किया जा रहा था, तो उसका कोई आधार न था अतएव असुरों तथा देवताओं के बलिष्ठ हाथों द्वारा पकड़ा रहने पर भी वह जल में डूब गया।
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All glories to saints and sages of the Supreme Lord
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥