श्री-शुक: उवाच—श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; ते—वे असुर; अन्योन्यत:—परस्पर; असुरा:—असुरगण; पात्रम्—अमृत का बर्तन; हरन्त:—एक दूसरे से छीनते हुए; त्यक्त-सौहृदा:—एक दूसरे के शत्रु बन गये; क्षिपन्त:—कभी-कभी फेंकते हुए; दस्यु धर्माण:—कभी-कभी लुटेरों की तरह छीनते हुए; आयान्तीम्—आगे आते हुए; ददृशु:—देखा; स्त्रियम्—अत्यन्त सुन्दर तथा आकर्षक स्त्री को ।.
अनुवाद
शुकदेव गोस्वामी ने कहा : तत्पश्चात् असुर एक दूसरे के शत्रु बन गये। उन्होंने अमृत पात्र को फेंकते और छीनते हुए अपना मैत्री-सम्बन्ध तोड़ लिया। इसी बीच उन्होंने देखा कि एक अत्यन्त सुन्दर तरुणी उनकी ओर आ रही है।
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All glories to saints and sages of the Supreme Lord
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥