श्रीशुक उवाच
इति ते क्ष्वेलितैस्तस्या आश्वस्तमनसोऽसुरा: ।
जहसुर्भावगम्भीरं ददुश्चामृतभाजनम् ॥ ११ ॥
शब्दार्थ
श्री-शुक: उवाच—श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति—इस प्रकार; ते—वे असुर; क्ष्वेलितै:—परिहास करने से; तस्या:— मोहिनी-मूर्ति के; आश्वस्त—कृतज्ञ, विश्वास युक्त; मनस:—मनों से; असुरा:—सारे असुर; जहसु:—हँस पड़े; भाव-गम्भीरम्— यद्यपि मोहिनी-मूर्ति गम्भीर थी; ददु:—दे दिया; च—भी; अमृत-भाजनम्—अमृत का पात्र ।.
अनुवाद
श्रीशुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : मोहिनी-मूर्ति के परिहासपूर्ण शब्द सुनकर सारे असुर अत्यधिक आश्वस्त हुए। वे गम्भीर रूप से हँस पड़े और अन्तत: उन्होंने वह अमृत घट उसके हाथों में थमा दिया।
तात्पर्य
मोहिनी का रूप धारण किये हुए भगवान् कोई हँसी-मजाक नहीं कर रहे थे वरन् गम्भीर बातें कर रहे थे। लेकिन असुर मोहिनी-मूर्ति के शारीरिक अंगों पर मोहित होने के कारण उनकी बातों को हँसी समझ रहे थे और उन्होंने आश्वस्त होकर उस अमृत-पात्र को मोहिनी के हाथों में सौंप दिया। इस तरह मोहिनी मूर्ति भगवान् बुद्ध के समान है, जो सम्मोहाय सुरद्विषाम् अर्थात् असुरों को धोखा देने के लिए प्रकट हुई। सुरद्विषाम् शब्द उनका सूचक है, जो देवताओं या भक्तों से ईष्या रखते हैं। कभी- कभी भगवान् का अवतार नास्तिकों को धोखा देता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि यद्यपि मोहिनी- मूर्ति असुरों से वास्तविक बातें कह रही थी, किन्तु वे उसके वचनों को ठिठोली समझ रहे थे। निस्सन्देह, वे मोहिनी-मूर्ति की निष्कपटता के प्रति इतने आश्वस्त थे कि उन्होंने तुरन्त ही अमृत-पात्र उसको सौंप दिया मानो वे उसे यह छूट दे रहे हों कि वह इस अमृत का चाहे जो करे—चाहे बाँट दे, चाहे फेंक दे या उनको दिये बिना स्वयं ही पी जाये।
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