दैत्यान्गृहीतकलसो वञ्चयन्नुपसञ्चरै: ।
दूरस्थान् पाययामास जरामृत्युहरां सुधाम् ॥ २१ ॥
शब्दार्थ
दैत्यान्—असुरों को; गृहीत-कलस:—अमृत का घट पकड़े भगवान् ने; वञ्चयन्—ठगते हुए; उपसञ्चरै:—मीठे वचनों से; दूर स्थान्—देवता, जो दूर बैठे थे; पाययाम् आस—पिलाया; जरा-मृत्यु-हराम्—अशक्तता, बुढ़ापा तथा मृत्यु को हरने वाले; सुधाम्—ऐसे अमृत को ।.
अनुवाद
अपने हाथों में अमृत का कलश लिये वह सर्वप्रथम असुरों के निकट आई और उसने अपनी मधुर वाणी से उन्हें सन्तुष्ट किया और इस तरह उनके अमृत के भाग से उन्हें वंचित कर दिया। तब उसने दूरी पर बैठे देवताओं को अमृत पिला दिया जिससे वे अशक्तता, बुढ़ापा तथा मृत्यु से मुक्त हो सकें।
तात्पर्य
मोहिनी-मूर्ति भगवान् ने देवताओं को दूर बैठाया। तब वह असुरों के पास पहुँची और उनसे अत्यधिक अदा से बोली जिससे वे अपने को उससे बात करने में भाग्यशाली समझें। चूँकि मोहिनी-मूर्ति ने देवताओं को दूरस्थ स्थान पर बिठाया था अतएव असुरों ने सोचा कि देवताओं को नाममात्र
का अमृत प्राप्त होगा और मोहिनी-मूर्ति हम पर इतनी प्रसन्न है कि सारा अमृत हमें ही पिला देगी। वञ्चयन्नुपसञ्चरै: शब्द सूचित करते हैं कि भगवान् की सारी नीति असुरों को मधुर शब्द बोलकर ठगने की थी। भगवान् की इच्छा एकमात्र देवताओं को अमृत बाँटने की थी।
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All glories to saints and sages of the Supreme Lord
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥