यत्—जो भी; युज्यते—सम्पन्न किया जाता है; असु—जीवन की रक्षा के लिए; वसु—सम्पत्ति की रक्षा; कर्म—कर्म; मन:— मन के कार्यों से; वचोभि:—शाब्दिक कार्यों से; देह-आत्म-ज-आदिषु—अपने शरीर या परिवार के लिए; नृभि:—मनुष्यों के द्वारा; तत्—वह; असत्—क्षणभंगुर; पृथक्त्वात्—भगवान् से वियोग के कारण; तै:—उन्हीं कार्यों के द्वारा; एव—निस्सन्देह; सत् भवति—वास्तविक तथा स्थायी बनता है; यत्—जो; क्रियते—सम्पन्न किया जाता है; अपृथक्त्वात्—वियोग न होने से; सर्वस्य—हर एक के लिए; तत् भवति—लाभप्रद बन जाता है; मूल-निषेचनम्—वृक्ष की जड़ को सींचने की तरह; यत्—जो ।.
अनुवाद
मानव समाज में मनुष्य की सम्पत्ति तथा उसके जीवन की सुरक्षा के लिए मनसावाचाकर्मणा विविध कार्य किये जाते हैं, किन्तु ये सब कार्य शरीर के लिए या इन्द्रियतृप्ति के लिए ही किये जाते हैं। ये सारे कार्यकलाप भक्ति से पृथक् होने के कारण निराशाजनक होते हैं। किन्तु जब ये ही कार्य भगवान् को प्रसन्न करने के लिए किये जाते हैं, तो उनके लाभकारी फल सब में बाँट दिए जाते हैं जिस तरह वृक्ष की जड़ में पानी डालने से वह समूचे वृक्ष में वितरित हो जाता है।
तात्पर्य
भौतिकतावादी कार्यकलापों एवं कृष्णभावनामृत के लिए सम्पन्न कार्यों में अन्तर यही होता है। सारा जगत सक्रिय है और इसमें कर्मी, ज्ञानी, योगी तथा भक्त सभी सम्मिलित हैं। किन्तु भक्तों के कार्यों के अतिरिक्त सारे कार्यकलाप निराशा एवं समय तथा शक्ति के अपव्यय में समाप्त होते हैं। मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतस:—जो भक्त नहीं है उसकी आशाएँ, उसके कर्म, तथा उसका ज्ञान सभी निराशाजनक होते हैं। अभक्त अपनी इन्द्रियतृप्ति के लिए या अपने परिवार, समाज, जाति या राष्ट्र के लिए कर्म करता है, किन्तु ऐसे सारे कार्य भगवान् से पृथक् होने के कारण असत् माने जाते हैं। असत् का अर्थ है बुरा, या क्षणिक तथा सत् का अर्थ है अच्छा तथा स्थायी। कृष्ण की तुष्टि के लिए किये गये कार्य स्थायी तथा उत्तम होते हैं, किन्तु असत् कार्य भले ही परोपकार या राष्ट्रवाद माने जाए, यह ‘वाद’ या वह ‘वाद’ कभी स्थायी परिणाम नहीं देता, फलत: निकृष्ट हैं। कृष्णभावनामृत में किया गया थोड़ा सा कार्य भी स्थायी निधि है और सर्वशुभ है क्योंकि यह सर्वकल्याणकारी भगवान् कृष्ण के लिए किया जाता है, जो हर एक के सुहृद हैं (सुहृदं सर्वभूतानाम् )। भगवान् ही हर एक वस्तु के एकमात्र भोक्ता तथा स्वामी हैं (भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम् ) अतएव भगवान् के लिए किया गया कोई भी कार्य स्थायी होता है। ऐसे कर्मों के फलस्वरूप कर्ता तुरन्त पहचान लिया जाता है। न च तस्मान् मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तम:। ऐसा भक्त, भगवान् का पूर्ण ज्ञान रखने के कारण तुरन्त दिव्य बन जाता है यद्यपि ऊपर से वह भौतिकतावादी कार्यों में व्यस्त दिखाई दे। भौतिकतावादी कर्म तथा आध्यात्मिक कर्म का अन्तर यही है कि भौतिक कर्म अपनी निजी इन्द्रियतृप्ति के लिए किया जाता है, जबकि आध्यात्मिक कर्म भगवान् की दिव्य इन्द्रियों को तुष्ट करने के लिए किये जाते हैं। आध्यात्मिक कर्म से हर एक को वास्तविक लाभ मिलता है, जबकि भौतिकतावादी कर्म से किसी को लाभ नहीं होता, प्रत्युत वह कर्म के नियमों में बँधता जाता है।
इस प्रकार श्रीमद्भागवत के अष्टम स्कंध के अन्तर्गत “मोहिनी-मूर्ति के रूप में भगवान् का अवतार” नामक नवें अध्याय के भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुए।
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