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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 8: ब्रह्माण्डीय सृष्टि का निवर्तन  »  अध्याय 9: मोहिनी-मूर्ति के रूप में भगवान् का अवतार  »  श्लोक 4
 
 
श्लोक  8.9.4 
न वयं त्वामरैर्दैत्यै: सिद्धगन्धर्वचारणै: ।
नास्पृष्टपूर्वां जानीमो लोकेशैश्च कुतो नृभि: ॥ ४ ॥
 
शब्दार्थ
—नहीं; वयम्—हम; त्वा—तुमको; अमरै:—देवताओं द्वारा; दैत्यै:—असुरों द्वारा; सिद्ध—सिद्धों द्वारा; गन्धर्व—गन्धर्वों द्वारा; चारणै:—तथा चारणों द्वारा; —नहीं; अस्पृष्ट-पूर्वाम्—किसी के द्वारा कभी भी न तो भोगी गई न स्पर्श की गई; जानीम:—ठीक से जान लो; लोक-ईशै:—ब्रह्माण्ड के विभिन्न निर्देशकों द्वारा; —भी; कुत:—क्या कहा जाये; नृभि:— मानव समाज द्वारा ।.
 
अनुवाद
 
 मनुष्यों की कौन कहे, देवता, असुर, सिद्ध, गन्धर्व, चारण तथा ब्रह्माण्ड के विभिन्न निर्देशक अर्थात् प्रजापति तक इसके पूर्व तुम्हारा स्पर्श नहीं कर पाये। ऐसा नहीं है कि हम तुम्हें ठीक से पहचान नहीं पा रहे हों।
 
तात्पर्य
 असुरों तक ने यह शिष्टाचार निभाया कि उनमें से कोई भी विवाहिता स्त्री को विषयवासना से युक्त होकर सम्बोधित न करे। महान् विश्लेषक चाणक्य पण्डित कहते हैं—मातृवत् परदारेषु—मनुष्य को चाहिए कि दूसरे की पत्नी को अपनी माता माने। असुरों ने यह मान लिया था कि वह तरुण सुन्दरी मोहिनी-मूर्ति जो उनके समक्ष आयी थी निश्चय ही, अविवाहिता थी। अतएव उन्होंने यह मान लिया कि इस संसार के किसी भी व्यक्ति ने जिसमें देवता, गन्धर्व, चारण, सिद्ध सम्मिलित हैं, उसका कभी स्पर्श नहीं किया होगा। असुर जानते थे कि वह तरुणी अविवाहिता थी अतएव उन्होंने उसे सम्बोधित करने का साहस जुटाया। उन्होंने यह मान लिया कि वह तरुणी मोहिनी-मूर्ति वहाँ पर उन सबके बीच (असुर, देवता, गन्धर्व इत्यादि) अपने लिए पति की खोज करने आयी है।
 
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