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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 9: मुक्ति  »  अध्याय 10: परम भगवान् रामचन्द्र की लीलाएँ  »  श्लोक 10
 
 
श्लोक  9.10.10 
सीताकथाश्रवणदीपितहृच्छयेन
सृष्टं विलोक्य नृपते दशकन्धरेण ।
जघ्नेऽद्भ‍ुतैणवपुषाश्रमतोऽपकृष्टो
मारीचमाशु विशिखेन यथा कमुग्र: ॥ १० ॥
 
शब्दार्थ
सीता-कथा—सीता के विषय में बातें; श्रवण—सुनकर; दीपित—उत्तेजित; हृत्-शयेन—रावण के मन की कामवासना द्वारा; सृष्टम्—उत्पन्न; विलोक्य—देखकर; नृपते—हे राजा परीक्षित; दश-कन्धरेण—दस सिरों वाले रावण द्वारा; जघ्ने—भगवान् राम ने मारा; अद्भुत-एण-वपुषा—सोने के मृग द्वारा; आश्रमत:—अपने आश्रम से; अपकृष्ट:—दूर भटकाकर; मारीचम्—असुर मारीच को जिसने सोने के मृग का रूप धारण किया था; आशु—तुरन्त; विशिखेन—तीक्ष्ण बाण से; यथा—जिस तरह; कम्—दक्ष को; उग्र:— शिवजी ने ।.
 
अनुवाद
 
 हे परीक्षित, जब दस शिरों वाले रावण ने सीता के सुन्दर एवं आकर्षक स्वरूप के विषय में सुना तो उसका मन कामवासनाओं से उत्तेजित हो उठा और वह उनको हरने गया। रावण ने भगवान् रामचन्द्र को उनके आश्रम से दूर ले जाने के लिए सोने के मृग का रूप धारण किये मारीच को भेजा और जब भगवान् ने उस अद्भुत मृग को देखा तो उन्होंने अपना आश्रम छोडक़र उसका पीछा करना शुरू कर दिया। अन्त में उसे तीक्ष्ण बाण से उसी तरह मार डाला जिस तरह शिवजी ने दक्ष को मारा था।
 
 
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