हिंदी में पढ़े और सुनें
भागवत पुराण  »  स्कन्ध 9: मुक्ति  »  अध्याय 10: परम भगवान् रामचन्द्र की लीलाएँ  »  श्लोक 13
 
 
श्लोक  9.10.13 
यद्रोषविभ्रमविवृत्तकटाक्षपात-
सम्भ्रान्तनक्रमकरो भयगीर्णघोष: ।
सिन्धु: शिरस्यर्हणं परिगृह्य रूपी
पादारविन्दमुपगम्य बभाष एतत् ॥ १३ ॥
 
शब्दार्थ
यत्-रोष—जिसका क्रोध; विभ्रम—प्रेरित; विवृत्त—बदल गया; कटाक्ष-पात—दृष्टिपात से; सम्भ्रान्त—विक्षुब्ध; नक्र—घडिय़ाल; मकर:—तथा मगर; भय-गीर्ण-घोष:—जिसकी गम्भीर गर्जना भय से दब गयी; सिन्धु:—सागर; शिरसि—सिर पर; अर्हणम्— भगवान् की पूजा की सारी सामग्री; परिगृह्य—ले जाकर; रूपी—रूप धारण करके; पाद-अरविन्दम्—भगवान् के चरणकमलों में; उपगम्य—पहुँच कर; बभाष—कहा; एतत्—यह (निम्नलिखित) ।.
 
अनुवाद
 
 समुद्र तट पर पहुँच कर भगवान् रामचन्द्र ने तीन दिन तक उपवास किया और वे साक्षात् समुद्र के आने की प्रतीक्षा करते रहे। जब समुद्र नहीं आया तो भगवान् ने अपनी क्रोध लीला प्रकट की और समुद्र पर दृष्टिपात करते ही समुद्र के सारे प्राणी, जिनमें घडिय़ाल तथा मगर सम्मिलित थे, भय के मारे उद्विग्न हो उठे। तब शरीर धारण करके डरता हुआ समुद्र पूजा की सारी सामग्री लेकर भगवान् के पास पहुँचा। उसने भगवान् के चरणकमलों पर गिरते हुए इस प्रकार कहा।
 
 
शेयर करें
       
 
  All glories to Srila Prabhupada. All glories to  वैष्णव भक्त-वृंद
  Disclaimer: copyrights reserved to BBT India and BBT Intl.

 
>  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥