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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 9: मुक्ति  »  अध्याय 10: परम भगवान् रामचन्द्र की लीलाएँ  »  श्लोक 14
 
 
श्लोक  9.10.14 
न त्वां वयं जडधियो नु विदाम भूमन्
कूटस्थमादिपुरुषं जगतामधीशम् ।
यत्सत्त्वत: सुरगणा रजस: प्रजेशा
मन्योश्च भूतपतय: स भवान् गुणेश: ॥ १४ ॥
 
शब्दार्थ
—नहीं; त्वाम्—तुमको, भगवान् को; वयम्—हम; जड-धिय:—मन्द बुद्धि वाले; नु—निस्सन्देह; विदाम:—जानते हैं; भूमन्—हे श्रेष्ठ; कूट-स्थम्—हृदय के भीतर; आदि-पुरुषम्—आदि भगवान् को; जगताम्—जगतों के; अधीशम्—सर्वोच्च स्वामी को; यत्— आपके निर्देशानुसार; सत्त्वत:—सत्त्वगुण से; सुर-गणा:—ऐसे देवता; रजस:—रजोगुण से; प्रजा-ईशा:—प्रजापति; मन्यो:— तमोगुण से प्रभावित; —तथा; भूत-पतय:—भूतों के शासक; स:—ऐसा पुरुष; भवान्—आप; गुण-ईश:—तीनों गुणों के स्वामी ।.
 
अनुवाद
 
 हे सर्वव्यापी परम पुरुष, हम लोग मन्द बुद्धि होने के कारण यह नहीं जान पाये कि आप कौन हैं, किन्तु अब हम जान पाये हैं कि आप सारे ब्रह्माण्ड के स्वामी, अक्षर तथा आदि परम पुरुष हैं। देवता लोग सतोगुण से, प्रजापति रजोगुण से तथा भूतों के ईश तमोगुण द्वारा अन्धे हो जाते हैं, किन्तु आप इन समस्त गुणों के स्वामी हैं।
 
तात्पर्य
 जड-धिय: शब्द पशु-बुद्धि का सूचक है। ऐसी बुद्धि वाला व्यक्ति भगवान् को नहीं समझ सकता। पशु बिना मार खाये मनुष्य के अभिप्राय को नहीं समझ सकता। इसी प्रकार जो जड़बुद्धि हैं वे भगवान् को नहीं समझ पाते, किन्तु तीनों गुणों के द्वारा बुरी तरह प्रताडि़त होने पर वे भगवान् को समझने लगते हैं। किसी हिन्दी कवि का कथन है—

दुख में सब हरि भजें सुख में भजे न कोइ।

सुख में जो हरि भजे दुख काहे को होइ ॥

दुखी होने पर वह मन्दिर या गिरजाघर में भगवान् को पूजने जाता है, किन्तु ऐश्वर्यवान होने पर भगवान् को भूल जाता है। अतएव भौतिक प्रकृति द्वारा मानव समाज को दण्डित करना भगवान् के लिए अनिवार्य है क्योंकि इसके बिना मनुष्य अपनी मन्द बुद्धि के कारण भगवान् की श्रेष्ठता को भूल जाते हैं।

 
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