शुकदेव गोस्वामी ने कहा : जल में उन पर्वत शृंगों को फेंककर जिनके सारे वृक्ष बन्दरों द्वारा हाथ से हिलाये गये थे, समुद्र के ऊपर पुल बना चुकने के बाद भगवान् रामचन्द्र सीतादेवी को रावण के चंगुल से छुड़ाने के लिए लंका गये। रावण के भाई विभीषण की सहायता से भगवान् सुग्रीव, नील, हनुमान इत्यादि वानर सैनिकों के साथ रावण के राज्य लंका में प्रविष्ट हुए जिसे हनुमान ने पहले ही भस्म कर दिया था।
तात्पर्य
बन्दर सैनिकों ने वृक्षों से ढके बड़े-बड़े पर्वतशृंगों को लाकर समुद्र में फेंका जो ईश्वर की परम इच्छा से तैरने लगे। भगवान् की इच्छा से ही आकाश में अनेक बड़े-बड़े ग्रह रुई के फाहों के समान भारहीन बनकर तैरते हैं। तो फिर महान् पर्वतशृंगों को जल में तैरने में कौन सी कठिनाई होगी? यह भगवान् की सर्वशक्तिमत्ता है। वे जो भी चाहें कर सकते हैं क्योंकि वे भौतिक प्रकृति के अधीन नहीं हैं, प्रत्युत प्रकृति ही उनके वश में है। मयाध्यक्षेण प्रकृति: सूयते सचराचरम्—मेरे ही निर्देशानुसार प्रकृति कार्य करती है। ब्रह्म-संहिता में (५.५२) भी ऐसी ही जानकारी प्राप्त है—
प्रकृति की कार्यशैली का वर्णन करते हुए ब्रह्म-संहिता कहती है कि सूर्य भगवान् की इच्छा से घूमता है। अतएव भगवान् रामचन्द्र के लिए हिन्द महासागर के ऊपर उन बन्दर सैनिकों की सहायता से जो बड़े बड़े पर्वतशृंगों को लाकर जल में फेंक रहे थे पुल बनाना तनिक भी आश्चर्यजनक नहीं है। यह केवल इसीलिए अद्भुत लगता है क्योंकि इस भगवान् रामचन्द्र के नाम तथा यश को अमरत्व प्रदान किया है।
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