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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 9: मुक्ति  »  अध्याय 10: परम भगवान् रामचन्द्र की लीलाएँ  »  श्लोक 17
 
 
श्लोक  9.10.17 
सा वानरेन्द्रबलरुद्धविहारकोष्ठ-
श्रीद्वारगोपुरसदोवलभीविटङ्का ।
निर्भज्यमानधिषणध्वजहेमकुम्भ-
श‍ृङ्गाटका गजकुलैर्ह्रदिनीव घूर्णा ॥ १७ ॥
 
शब्दार्थ
सा—वह लंका नगरी; वानर-इन्द्र—वानरों के बड़े-बड़े सेनापतियों के; बल—बल से; रुद्ध—घिरी हुई; विहार—क्रीड़ा स्थल; कोष्ठ—कोठार, अन्न के गोदामों; श्री—खजाने; द्वार—महलों के दरवाजे; गोपुर—नगरी के फाटक; सद:—सभाभवन; वलभी— बड़े-बड़े महलों के अग्रभाग, छज्जे; विटङ्का—कबूतरखाने; निर्भज्यमान—तोड़े जाने वाले; धिषण—चबूतरे; ध्वज—झंडे, पताकाएँ; हेम-कुम्भ—सोने के गुम्बद; शृङ्गाटका—तथा चौराहे; गज-कुलै:—हाथी के झुंडों से; ह्रदिनी—नदी; इव—सदृश; घूर्णा—क्षुब्ध, मथी हुई ।.
 
अनुवाद
 
 लंका में प्रवेश करने के बाद सुग्रीव, नील, हनुमान आदि वानर सेनापतियों के नेतृत्व में वानर सैनिकों ने सारे विहारस्थलों, अन्न के गोदामों, खजानों, महलों के द्वारों, नगर के फाटकों, सभाभवनों, महल के छज्जों और यहाँ तक कि कबूतरघरों में अधिकार कर लिया। जब नगरी के सारे चौराहे, चबूतरे, झंडे तथा गुम्बदों पर रखे सुनहरे गमले ध्वस्त कर दिये गये तो समूची लंका नगरी उस नदी के सदृश प्रतीत हो रही थी जिसे हाथियों के झुंड ने मथ दिया हो।
 
 
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