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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 9: मुक्ति  »  अध्याय 10: परम भगवान् रामचन्द्र की लीलाएँ  »  श्लोक 20
 
 
श्लोक  9.10.20 
तेऽनीकपा रघुपतेरभिपत्य सर्वे
द्वन्द्वं वरूथमिभपत्तिरथाश्वयोधै: ।
जघ्नुर्द्रुमैर्गिरिगदेषुभिरङ्गदाद्या:
सीताभिमर्षहतमङ्गलरावणेशान् ॥ २० ॥
 
शब्दार्थ
ते—वे सब; अनीक-पा:—सैनिकों के सेनापति; रघुपते:—भगवान् रामचन्द्र के; अभिपत्य—शत्रु का पीछा करते; सर्वे—सभी; द्वन्द्वम्—लड़ते हुए; वरूथम्—रावण के सैनिकों को; इभ—हाथी; पत्ति—पैदल सैना; रथ—रथ; अश्व—घोड़े; योधै:—योद्धाओं से; जघ्नु:—उन्हें मार डाला; द्रुमै:—बड़े-बड़े वृक्षों को फेंककर; गिरि—पर्वत की चोटियों; गदा—गदा; इषुभि:—बाणों से; अङ्गद- आद्या:—अंगद इत्यादि भगवान् रामचन्द्र के सारे सैनिक; सीता—सीता देवी का; अभिमर्ष—क्रोध से; हत—ध्वस्त; मङ्गल—जिसका कल्याण; रावण-ईशान्—रावण के अनुयायियों को ।.
 
अनुवाद
 
 अंगद तथा रामचन्द्र के अन्य सेनापतियों ने शत्रुओं के हाथियों, पैदल सैनिकों, घोड़ों तथा रथों का सामना किया और उन पर बड़े-बड़े वृक्ष, पर्वत-शृंग, गदा तथा बाण फेंके। इस तरह श्री रामचन्द्रजी के सैनिकों ने रावण के सैनिकों को जिनका सौभाग्य पहले ही लुट चुका था, मार डाला क्योंकि सीतादेवी के क्रोध से रावण पहले ही ध्वस्त हो चुका था।
 
तात्पर्य
 भगवान् रामचन्द्र ने जंगल में जितने सैनिकों की भरती की, वे बन्दर थे और उनके पास रावण के सैनिकों से लडऩे के लिए समुचित साज-सामान न था क्योंकि रावण के सैनिकों के पास आधुनिक युद्धास्त्र थे जब कि बन्दरों के पास फेंकने के लिए पत्थर, पर्वतशृंग तथा वृक्ष थे। केवल भगवान् रामचन्द्र और लक्ष्मण कुछ बाण चला रहे थे। किन्तु क्योंकि रावण के सैनिक माता सीता के शाप से ध्वस्त हो चुके थे अतएव सारे बन्दर उन्हें केवल पत्थर एवं वृक्ष चलाकर मारने में समर्थ हो सके। बल दो प्रकार का होता है—दैव तथा पुरुषाकार। दैवबल अध्यात्म से प्राप्त किया जाता है और पुरुषाकार बल अपनी बुद्धि तथा शक्ति से प्राप्त किया जाता है। अध्यात्म बल भौतिकतावादी बल से सदैव श्रेष्ठ होता है। भगवान् की कृपा पर अवलम्बित होकर मनुष्य को अपने शत्रु से युद्ध करना चाहिए भले ही वह आधुनिक हथियारों से युक्त क्यों न हो। इसीलिए कृष्ण ने अर्जुन को आदेश दिया—मामनुस्मर युध्य च—मेरा चिन्तन करके युद्ध करो। हमें शत्रु से अपनी शक्तिभर लडऩा चाहिए, किन्तु विजय पाने के लिए भगवान् पर आश्रित रहना चाहिए।
 
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