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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 9: मुक्ति  »  अध्याय 10: परम भगवान् रामचन्द्र की लीलाएँ  »  श्लोक 23
 
 
श्लोक  9.10.23 
एवं क्षिपन् धनुषि संधितमुत्ससर्ज
बाणं स वज्रमिव तद्‍धृदयं बिभेद ।
सोऽसृग् वमन् दशमुखैर्न्यपतद् विमाना-
द्धाहेति जल्पति जने सुकृतीव रिक्त: ॥ २३ ॥
 
शब्दार्थ
एवम्—इस तरह; क्षिपन्—डाँटते हुए, धिक्कारते हुए; धनुषि—धनुष पर; सन्धितम्—तीर चढ़ाकर; उत्ससर्ज—उसकी ओर छोड़ा; बाणम्—बाण; स:—वह तीर; वज्रम् इव—वज्र की भाँति; तत्-हृदयम्—रावण के हृदय को; बिभेद—बेध डाला; स:—वह, रावण; असृक्—रक्त; वमन्—कै करता; दश-मुखै:—दसों मुँहों से; न्यपतत्—गिर पड़ा; विमानात्—अपने विमान से; हाहा—हाय हाय, क्या हुआ; इति—इस प्रकार; जल्पति—दहाड़ते हुए; जने—सारे लोगों के सामने; सुकृती इव—पुण्यात्मा की तरह; रिक्त:— पुण्यों के चुक जाने पर ।.
 
अनुवाद
 
 इस प्रकार रावण को धिक्कारने के बाद भगवान् रामचन्द्र ने अपने धनुष पर बाण रखा और रावण को निशाना बनाकर बाण छोड़ा जो रावण के हृदय में वज्र के समान बेध गया। इसे देखकर रावण के अनुयायियों ने चिल्लाते हुए तुमुल ध्वनि की “हाय! हाय!” “क्या हो गया?” क्योंकि रावण अपने दसों मुखों से रक्त वमन करता हुआ अपने विमान से उसी तरह नीचे गिर पड़ा जिस प्रकार कोई पुण्यात्मा अपने पुण्यों के चुक जाने पर स्वर्ग से पृथ्वी पर आ गिरता है।
 
तात्पर्य
 भगवद्गीता (९.२१) में कहा गया है—क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति—जब पुण्यों के फलों का क्षय हो जाता है तो स्वर्ग का भोग करने वाले पुन: पृथ्वी पर आ गिरते हैं। इस जगत के सकाम कर्म ऐसे हैं कि कोई चाहे पुण्य करे या पाप, उसे इसी संसार के भीतर भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में रहना होता है क्योंकि पाप या पुण्य के द्वारा बारम्बार जन्म-मृत्यु की माया के चंगुल से छूटा नहीं जा सकता। रावण को किसी तरह समस्त ऐश्वर्यों से युक्त महान् साम्राज्य का राजपद मिल गया था, किन्तु सीतादेवी का अपहरण जैसा पापकर्म करने के कारण उसके सारे पुण्यकर्मों के फल विनष्ट हो गये थे। यदि कोई किसी महापुरुष का, विशेष रूप से भगवान् का अपमान करता है तो वह निस्सन्देह अत्यन्त अधम हो जाता है और अपने पुण्यकर्मों के फल से विरहित होकर रावण तथा अन्य राक्षसों की भाँति नीचे गिर जाता है। इसीलिए सलाह दी जाती है कि मनुष्य पाप-पुण्य दोनों से ऊपर उठे और समस्त उपाधियों से रहित शुद्ध अवस्था में रहे (सर्वोपाधि विनिर्मुक्तं तत्परत्वेन निर्मलम् )। जब कोई मनुष्य भक्ति में स्थिर हो जाता है तो वह भौतिक स्तर से ऊपर चला जाता है। भौतिक स्तर पर उच्च तथा निम्न दशाएँ होती हैं, किन्तु भौतिक स्तर से ऊपर होने पर मनुष्य आध्यात्मिक स्थिति में सदैव स्थिर रहता जाता है (स गुणान्समतीत्यैतान् ब्रह्मभूयाय कल्पते )। रावण या उस जैसे अन्य लोग भले ही इस भौतिक संसार में शक्तिशाली एवं ऐश्वर्यवान हों, किन्तु उनके पद सुरक्षित नहीं हैं क्योंकि अन्तत: वे अपने कर्मफलों से बँधे रहते हैं (कर्मणा दैवनेत्रेण )। हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि हम प्रकृति के नियमों के पूर्णत: अधीन हैं—

प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै कर्माणि सर्वश:।

अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥

“प्रकृति के तीन गुणों के प्रभाव के अन्तर्गत मोहग्रस्त जीव अपने को उन सारे कर्मों का कर्ता मान बैठता है जो वास्तव में प्रकृति द्वारा सम्पन्न होते हैं।” (भगवद्गीता ३.२७) किसी को न तो अपने उच्च स्थान का घमंड होना चाहिए और न ही अपने को प्रकृति के नियमों से स्वतंत्र मानकर रावण की तरह कर्म करना चाहिए।

 
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