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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 9: मुक्ति  »  अध्याय 10: परम भगवान् रामचन्द्र की लीलाएँ  »  श्लोक 32
 
 
श्लोक  9.10.32 
आरोप्यारुरुहे यानं भ्रातृभ्यां हनुमद्युत: ।
विभीषणाय भगवान् दत्त्वा रक्षोगणेशताम् ।
लङ्कामायुश्च कल्पान्तं ययौ चीर्णव्रत: पुरीम् ॥ ३२ ॥
 
शब्दार्थ
आरोप्य—चढ़ाकर; आरुरुहे—स्वयं चढ़ गये; यानम्—विमान में; भ्रातृभ्याम्—अपने भाई लक्ष्मण तथा सेनापति सुग्रीव समेत; हनुमत्-युत:—हनुमान समेत; विभीषणाय—रावण के भाई विभीषण को; भगवान्—भगवान् ने; दत्त्वा—सौंप दिया; रक्ष:-गण- ईशताम्—लंका के राक्षसों पर शासन करने का अधिकार; लङ्काम्—लंका-राज्य; आयु: च—तथा जीवन (आयु); कल्प-अन्तम्— एक कल्प के अन्त तक, अनेकानेक वर्षों के लिए; ययौ—घर चले गये; चीर्ण-व्रत:—वनवास की अवधि पूरी करके; पुरीम्— अयोध्या पुरी को ।.
 
अनुवाद
 
 भगवान् रामचन्द्र ने विभीषण को लंका के राक्षसों पर एक कल्प तक राज्य करने का अधिकार सौंपकर सीतादेवी को पुष्प से सज्जित विमान (पुष्पक विमान) में बैठाया और फिर वे स्वयं उसमें बैठ गये। अपने वनवास की अवधि समाप्त होने पर, हनुमान, सुग्रीव तथा अपने भाई लक्ष्मणसमेत, भगवान् अयोध्या लौट आये।
 
 
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