जब भरतजी को पता चला कि भगवान् रामचन्द्र अपनी राजधानी अयोध्या लौट रहे हैं तो तुरन्त ही वे भगवान् की खड़ाऊँ अपने सिर पर रखे और नन्दिग्राम स्थित अपने खेमे से बाहर आ गये। भरतजी के साथ मंत्री, पुरोहित, अन्य भद्र नागरिक, मधुर गायन करते पेशेवर गवैये तथा वैदिक मंत्रों का उच्चस्वर से पाठ करने वाले विद्वान ब्राह्मण थे। उनके पीछे जुलूस में रथ थे जिनमें सुन्दर घोड़े जुते थे जिनकी लगामें सुनहरी रस्सियों की थीं। ये रथ सुनहरी किनारी वाली पताकाओं तथा अन्य विविध आकार-प्रकार की पताकाओं से सजाये गये थे। सैनिक सुनहरे कवचों से लैस थे, नौकर पान-सुपारी लिए थे और साथ में अनेक विख्यात सुन्दर वेश्याएँ थीं। अनेक नौकर पैदल चल रह थे और वे छाता, चामर, बहुमूल्य रत्न तथा उपयुक्त विविध राजसी सामान लिए हुए थे। इस तरह प्रेमानन्द से आर्द्र हृदय एवं अश्रुओं से पूरित नेत्रोंवाले भरतजी भगवान् रामचन्द्र के निकट पहुँचे और अत्यन्त भावविभोर होकर उनके चरणकमलों पर गिर गये।
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