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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 9: मुक्ति  »  अध्याय 10: परम भगवान् रामचन्द्र की लीलाएँ  »  श्लोक 39-40
 
 
श्लोक  9.10.39-40 
पादुके न्यस्य पुरत: प्राञ्जलिर्बाष्पलोचन: ।
तमाश्लिष्य चिरं दोर्भ्यां स्‍नापयन् नेत्रजैर्जलै: ॥ ३९ ॥
रामो लक्ष्मणसीताभ्यां विप्रेभ्यो येऽर्हसत्तमा: ।
तेभ्य: स्वयं नमश्चक्रे प्रजाभिश्च नमस्कृत: ॥ ४० ॥
 
शब्दार्थ
पादुके—दोनों खड़ाओं को; न्यस्य—रखकर; पुरत:—भगवान् रामचन्द्र के सामने; प्राञ्जलि:—हाथ जोड़े; बाष्प-लोचन:—अश्रुपूरित आँखों से; तम्—भरत को; आश्लिष्य—आलिंगन करके; चिरम्—देर तक; दोर्भ्याम्—अपनी दोनों भुजाओं से; स्नापयन्—नहलाते हुए; नेत्र-जै:—नेत्रों से निकलते हुए; जलै:—जल से; राम:—रामचन्द्र; लक्ष्मण-सीताभ्याम्—लक्ष्मण तथा सीता समेत; विप्रेभ्य:— विद्वान ब्राह्मणों को; ये—तथा अन्य जो; अर्ह-सत्तमा:—पूजनीय; तेभ्य:—उनको; स्वयम्—स्वयं; नम:-चक्रे—नमस्कार किया; प्रजाभि:—नागरिकों द्वारा; —तथा; नम:-कृत:—नमस्कार किया गया ।.
 
अनुवाद
 
 भगवान् रामचन्द्र के समक्ष खड़ाओं को रखकर भरतजी आँखों में आँसू भरकर और दोनों हाथ जोडक़र खड़े रहे। भगवान् रामचन्द्र अपनी दोनों भुजाओं में भरत को भरकर दीर्घकाल तक आलिंगन करते रहे और उन्होंने उन्हें अपने आँसुओं से नहला दिया। तत्पश्चात् सीतादेवी तथा लक्ष्मण के साथ रामचन्द्र ने विद्वान ब्राह्मणों तथा परिवार के गुरुजनों को नमस्कार किया। समस्त अयोध्यावासियों ने भगवान् को सादर नमस्कार किया।
 
 
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