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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 9: मुक्ति  »  अध्याय 10: परम भगवान् रामचन्द्र की लीलाएँ  »  श्लोक 45-46
 
 
श्लोक  9.10.45-46 
भ्रात्राभिनन्दित: सोऽथ सोत्सवां प्राविशत् पुरीम् ।
प्रविश्य राजभवनं गुरुपत्नी: स्वमातरम् ॥ ४५ ॥
गुरून् वयस्यावरजान् पूजित: प्रत्यपूजयत् ।
वैदेही लक्ष्मणश्चैव यथावत् समुपेयतु: ॥ ४६ ॥
 
शब्दार्थ
भ्रात्रा—अपने भाई (भरत) द्वारा; अभिनन्दित:—स्वागत किये जाकर; स:—उसने, रामचन्द्र ने; अथ—तत्पश्चात्; स-उत्सवाम्— उत्सव के मध्य में; प्राविशत्—प्रवेश किया; पुरीम्—अयोध्या नगरी में; प्रविश्य—प्रवेश करके; राज-भवनम्—राजमहल में; गुरु- पत्नी:—कैकयी तथा अन्य विमाताओं; स्व-मातरम्—अपनी निजी माता (कौशल्या) को; गुरून्—गुरुओं को (श्री वसिष्ठ तथा अन्य); वयस्य—हम उम्र वाले मित्रों को; अवर-जान्—तथा अपने से छोटों को; पूजित:—उनके द्वारा पूजित होकर; प्रत्यपूजयत्— बदले में नमस्कार किया; वैदेही—सीतादेवी; लक्ष्मण:—लक्ष्मण; च एव—तथा; यथा-वत्—उपयुक्त ढंग से; समुपेयतु:—स्वागत किये जाकर महल में घुसे ।.
 
अनुवाद
 
 तत्पश्चात् अपने भाई भरत द्वारा स्वागत किये जाकर भगवान् रामचन्द्र एक उत्सव के बीच अयोध्या नगरी में प्रविष्ट हुए। जब वे महल में घुसे तो उन्होंने कैकेयी तथा महाराज दशरथ की अन्य पत्नी एवं अपनी माता कौशल्या—इन सभी माताओं को नमस्कार किया। उन्होंने अपने गुरुओं को, यथा वसिष्ठ को भी प्रणाम किया। उनके हमउम्र मित्रों तथा उनसे कम आयु वाले मित्रों ने उनकी पूजा की तो उन्होंने भी उनका अभिवादन किया। लक्ष्मण तथा सीतादेवी ने भी वैसा ही किया। इस प्रकार वे सभी महल में प्रविष्ट हुए।
 
 
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