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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 9: मुक्ति  »  अध्याय 10: परम भगवान् रामचन्द्र की लीलाएँ  »  श्लोक 48
 
 
श्लोक  9.10.48 
जटा निर्मुच्य विधिवत् कुलवृद्धै: समं गुरु: ।
अभ्यषिञ्चद् यथैवेन्द्रं चतु:सिन्धुजलादिभि: ॥ ४८ ॥
 
शब्दार्थ
जटा:—सिर पर बढ़ी जटा; निर्मुच्य—मुँड़वाकर, साफ करवा कर; विधि-वत्—विधि-विधान के अनुसार; कुल-वृद्धै:—परिवार के गुरुजनों के; समम्—साथ; गुरु:—गुरु वसिष्ठ ने; अभ्यषिञ्चत्—भगवान् रामचन्द्र का अभिषेक किया; यथा—जिस तरह; एव— सदृश; इन्द्रम्—इन्द्र को; चतु:-सिन्धु-जल—चारों समुद्रों का जल; आदिभि:—स्नान की अन्य सामग्रियों से ।.
 
अनुवाद
 
 कुलगुरु वसिष्ठ ने भगवान् रामचन्द्र के सिर की जटाएँ मुँड़वा दीं। तत्पश्चात् कुल के गुरुजनों के सहयोग से उन्होंने चारों समुद्रों के जल तथा अन्य सामग्रियों के द्वारा भगवान् रामचन्द्र का अभिषेक उसी तरह सम्पन्न किया जिस तरह राजा इन्द्र का हुआ था।
 
 
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