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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 9: मुक्ति  »  अध्याय 10: परम भगवान् रामचन्द्र की लीलाएँ  »  श्लोक 53
 
 
श्लोक  9.10.53 
नाधिव्याधिजराग्लानिदु:खशोकभयक्लमा: ।
मृत्युश्चानिच्छतां नासीद् रामे राजन्यधोक्षजे ॥ ५३ ॥
 
शब्दार्थ
—नहीं; आधि—आध्यात्मिक, अधिभौतिक तथा अधिदैविक कष्ट (अर्थात् शरीर तथा मन के, अन्य जीवों द्वारा पहुँचाये गये तथा प्रकृति द्वारा प्रदत्त कष्ट); व्याधि—रोग; जरा—बुढ़ापा; ग्लानि—विछोह; दु:ख—कष्ट; शोक—पश्चाताप; भय—डर; क्लमा:— थकावट; मृत्यु:—मरण; —भी; अनिच्छताम्—न चाहने वालों का; न आसीत्—नहीं था; रामे—भगवान् रामचन्द्र के शासन में; राजनि—राजा होने के कारण; अधोक्षजे—भगवान्, जो इस जगत से परे है ।.
 
अनुवाद
 
 जब भगवान् रामचन्द्र इस जगत के राजा थे तो सारे शारीरिक तथा मानसिक कष्ट, रोग, बुढ़ापा, विछोह, पश्चाताप, दुख, डर तथा थकावट का नामोनिशान न था। यहाँ तक कि न चाहने वालों के लिए मृत्यु भी नहीं थी।
 
तात्पर्य
 इतनी सारी सुविधाएँ इसलिए विद्यमान थीं क्योंकि भगवान् रामचन्द्र सम्पूर्ण जगत के राजा थे। ऐसी ही परिस्थिति इस कलियुग में भी तुरन्त लागू की जा सकती है, भले ही यह युग समस्त युगों में निकृष्ट क्यों न हो। कहा गया है कि—कलिकाले नामरूपे कृष्ण अवतार—कृष्णजी इस कलियुग में केवल अपने पवित्र नाम—हरे कृष्ण हरे राम के रूप में अवतरित होते है। यदि हम अपराधरहित होकर कीर्तन करें तो इस युग में राम तथा कृष्ण अब भी उपस्थित है। रामराज्य अत्यधिक लोकप्रिय एवं लाभदायक था और इस कलियुग में भी इस हरे कृष्ण आन्दोलन के प्रसार से वैसी ही परिस्थिति तुरन्त लाई जा सकती है।
 
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