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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 9: मुक्ति  »  अध्याय 13: महाराज निमि की वंशावली  » 
 
 
 
 
संक्षेप विवरण:  इस अध्याय में उस वंश का वर्णन हुआ है जिसमें प्रकाण्ड विद्वान जनक पैदा हुए थे। यह महाराज निमि का वंश है जो इक्ष्वाकु के पुत्र बतलाये जाते हैं। जब महाराज निमि ने...
 
श्लोक 1:  श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा : यज्ञों का शुभारम्भ कराने के बाद इक्ष्वाकु पुत्र महाराज निमि ने वसिष्ठ मुनि से प्रधान पुरोहित का पद ग्रहण करने के लिए अनुरोध किया। उस समय वसिष्ठ ने उत्तर दिया, “हे महाराज निमि, मैंने इन्द्र द्वारा प्रारम्भ किये गये एक यज्ञ में इसी पद को पहले से स्वीकार कर रखा है।”
 
श्लोक 2:  “मैं इन्द्र का यज्ञ पूरा कराकर यहाँ वापस आ जाऊँगा। कृपया तब तक मेरी प्रतीक्षा करें।” महाराज निमि चुप हो गए और वसिष्ठ इन्द्र का यज्ञ सम्पन्न करने में लग गये।
 
श्लोक 3:  महाराज निमि स्वरूपसिद्ध जीव थे अतएव उन्होंने सोचा कि यह जीवन क्षणिक है; अतएव दीर्घकाल तक वसिष्ठ की प्रतीक्षा न करके उन्होंने अन्य पुरोहितों से यज्ञ सम्पन्न कराना शुरू कर दिया।
 
श्लोक 4:  इन्द्र का यज्ञ सम्पन्न कर लेने के बाद गुरु वसिष्ठ वापस आये तो उन्होंने देखा कि उनके शिष्य महाराज निमि ने उनके आदेशों का उल्लंघन कर दिया है। अतएव उन्होंने निमि को शाप दिया, “अपने को पण्डित मानने वाले निमि का भौतिक शरीर तुरन्त ही नष्ट हो जाय।”
 
श्लोक 5:  महाराज निमि द्वारा किसी प्रकार का अपराध न किये जाने पर व्यर्थ ही गुरु द्वारा शापित होने पर उन्होंने भी बदले में शाप दिया, “स्वर्ग के राजा इन्द्र से भेंट पाने के निमित्त आपने अपनी धार्मिक बुद्धि खो दी है; अतएव मेरा शाप है कि आपका भी शरीरपात हो जाय।”
 
श्लोक 6:  यह कहकर अध्यात्म में पटु महाराज निमि ने अपना शरीर छोड़ दिया। प्रपितामह वसिष्ठ ने भी अपना शरीर त्याग दिया, किन्तु मित्र तथा वरुण के वीर्य से उर्वशी के गर्भ से उन्होंने पुन: जन्म लिया।
 
श्लोक 7:  यज्ञ सम्पन्न करते समय महाराज निमि द्वारा त्यक्त शरीर को सुगन्धित वस्तुओं द्वारा सुरक्षित रखा गया और सत्रयाग के अन्त में मुनियों तथा ब्राह्मणों ने वहाँ एकत्रित सारे देवताओं से निम्नलिखित प्रार्थना की।
 
श्लोक 8:  “यदि आप इस यज्ञ से संतुष्ट हैं और यदि वास्तव में आप ऐसा करने में समर्थ हों तो कृपया इस शरीर में महाराज निमि को फिर से जीवित कर दें।” देवताओं ने मुनियों की यह प्रार्थना स्वीकर कर ली, किन्तु महाराज निमि ने कहा, “कृपया मुझे भौतिक शरीर में पुन: बन्दी न बनाएँ।”
 
श्लोक 9:  महाराज निमि ने आगे कहा : सामान्य रूप से मायावादी लोग भौतिक शरीर धारण नहीं करना चाहते हैं क्योंकि उन्हें उसका त्याग करने में भय लगता है। किन्तु जिन भक्तों की चेतना सदैव भगवान् की सेवा से पूरित रहती है वे भयभीत नहीं रहते। निस्सन्देह, वे इस शरीर का उपयोग भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति में करते हैं।
 
श्लोक 10:  मैं भौतिक शरीर पाने का इच्छुक नहीं हूँ क्योंकि ऐसा शरीर विश्वभर में सर्वत्र दुख, शोक तथा भय का कारण होता है जिस तरह कि जल में रहने वाली मछली मृत्यु के भय से सदैव चिन्ताग्रस्त रहती है।
 
श्लोक 11:  देवताओं ने कहा : महाराज निमि भौतिक शरीर से विहीन होकर रहें। वे आध्यात्मिक शरीर से भगवान् के निजी पार्षद बन कर रहें और वे अपनी इच्छानुसार जब चाहें सामान्य देहधारी लोगों को दिखें या न दिखें।
 
श्लोक 12:  तत्पश्चात् लोगों को अराजकता के भय से बचाने के लिए ऋषियों ने निमि महाराज के भौतिक शरीर को मथा जिसके फलस्वरूप शरीर से एक पुत्र उत्पन्न हुआ।
 
श्लोक 13:  असामान्य विधि से उत्पन्न होने के कारण वह पुत्र जनक कहलाया और चूँकि वह अपने पिता के मृत शरीर से उत्पन्न हुआ था अतएव वह वैदेह कहलाया। अपने पिता के भौतिक शरीर के मन्थन से उत्पन्न होने से वह मिथिल कहलाया और उसने राजा मिथलि के रूप में जो नगर निर्मित किया वह मिथिला कहलाया।
 
श्लोक 14:  हे राजा परीक्षित, मिथिल से जो पुत्र उत्पन्न हुआ वह उदावसु कहलाया; उदावसु से नन्दिवर्धन; नन्दिवर्धन से सुकेतु और सुकेतु से देवरात उत्पन्न हुआ।
 
श्लोक 15:  देवरात से बृहद्रथ नामक पुत्र हुआ और बृहद्रथ का पुत्र महावीर्य हुआ जो सुधृति का पिता बना। सुधृति का पुत्र धृष्टकेतु कहलाया और धृष्टकेतु से हर्यश्व हुआ। हर्यश्व का पुत्र मरु हुआ।
 
श्लोक 16:  मरु का पुत्र प्रतीपक हुआ और प्रतीपक का पुत्र कृतरथ हुआ। कृतरथ से देवमीढ, देवमीढ से विश्रुत एवं विश्रुत से महाधृति हुआ।
 
श्लोक 17:  महाधृति से कृतिरात नामक पुत्र हुआ, कृतिरात से महारोमा हुआ, महारोमा से स्वर्णरोमा और स्वर्णरोमा से ह्रस्वरोमा उत्पन्न हुआ।
 
श्लोक 18:  ह्रस्वरोमा से शीरध्वज (जिसका नाम जनक भी था) नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। जब वह खेत जोत रहा था तो उसके हल (शीर) के अग्रभाग से सीतादेवी नामक कन्या प्रकट हुई जो बाद में भगवान् रामचन्द्र की पत्नी बनी। इस तरह वह शीरध्वज कहलाया।
 
श्लोक 19:  शीरध्वज का पुत्र कुशध्वज हुआ और कुशध्वज का पुत्र राजा धर्मध्वज हुआ जिसके कृतध्वज तथा मितध्वज नाम के दो पुत्र हुए।
 
श्लोक 20-21:  हे महाराज परीक्षित, कृतध्वज का पुत्र केशिध्वज हुआ और मितध्वज का पुत्र खाण्डिक्य था। कृतध्वज का पुत्र आध्यात्मिक ज्ञान में पटु था और मितध्वज का पुत्र वैदिक कर्मकाण्ड में। खाण्डिक्य केशिध्वज के भय से भाग गया। केशिध्वज का पुत्र भानुमान था और भानुमान का पुत्र शतद्युम्न हुआ।
 
श्लोक 22:  शतद्युम्न के पुत्र का नाम शुचि था। शुचि से सनद्वाज उत्पन्न हुआ और सनद्वाज का पुत्र ऊर्जकेतु था। ऊर्जकेतु का पुत्र अज था और अज का पुत्र पुरुजित हुआ।
 
श्लोक 23:  पुरुजित का पुत्र अरिष्टनेमि हुआ, जिसका पुत्र श्रुतायु हुआ, श्रुतायु का पुत्र सुपार्श्वक था और उसका पुत्र चित्ररथ था। चित्ररथ का पुत्र क्षेमाधि था जो मिथिला का राजा बना।
 
श्लोक 24:  क्षेमाधि का पुत्र समरथ हुआ और उसका पुत्र सत्यरथ था। सत्यरथ का पुत्र उपगुरु हुआ और उपगुरु का पुत्र उपगुप्त हुआ जो अग्निदेव का अंशरूप था।
 
श्लोक 25:  उपगुप्त का पुत्र वस्वनन्त था, जिसका पुत्र युयुध हुआ। युयुध का पुत्र सुभाषण, सुभाषण का पुत्र श्रुत, श्रुत का पुत्र जय और जय का पुत्र विजय था। विजय का पुत्र ऋत था।
 
श्लोक 26:  ऋत का पुत्र शुनक था, शुनक का वीतहव्य, वीतहव्य का धृति, धृति का बहुलाश्व, बहुलाश्व का कृति तथा उसका पुत्र महावशी था।
 
श्लोक 27:  शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजा परीक्षित, मिथिल वंश के सारे राजा अध्यात्म ज्ञान में पटु थे। अतएव वे घर पर रहते हुए भी संसार के द्वन्द्वों से मुक्त हो गये।
 
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