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अध्याय 16: भगवान् परशुराम द्वारा विश्व के क्षत्रियों का विनाश |
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संक्षेप विवरण: जैसा कि इस अध्याय में वर्णन हुआ है, जब कार्तवीर्यार्जुन के पुत्रों ने जमदग्नि को मार डाला तो परशुराम ने सम्पूर्ण संसार को इक्कीस बार क्षत्रियों से विहीन किया।... |
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श्लोक 1: शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे महाराज परीक्षित, हे कुरुवंशी, जब भगवान् परशुराम को उनके पिता ने यह आदेश दिया तो उन्होंने तुरन्त ही यह कहते हुए उसे स्वीकार किया, “ऐसा ही होगा।” वे एक वर्ष तक तीर्थस्थलों की यात्रा करते रहे। तत्पश्चात् वे अपने पिता के आश्रम में लौट आये। |
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श्लोक 2: एक बार जब जमदग्नि की पत्नी रेणुका गंगा नदी के तट पर पानी भरने गई तो उन्होंने कमल फूल की माला से अलंकृत तथा अप्सराओं के साथ गंगा में विहार करते गन्धर्वों के राजा को देखा। |
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श्लोक 3: वह गंगा नदी से जल लाने गई थी, किन्तु जब उसने गन्धर्वराज चित्ररथ को अप्सराओं के साथ विहार करते देखा तो वह उसकी ओर उन्मुख सी हुई और यह भूल ही गई कि अग्निहोत्र का समय बीत रहा है। |
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श्लोक 4: तत्पश्चात् यह समझकर कि यज्ञ करने का समय बीत चुका है, रेणुका अपने पति द्वारा शापित होने से भयभीत हो उठी। अतएव जब वह लौटकर आई तो वह उनके समक्ष जलपात्र रखकर हाथ जोडक़र खड़ी हो गई। |
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श्लोक 5: मुनि जमदग्नि अपनी पत्नी के मन के पाप को समझ गये। अतएव वे अत्यन्त कुपित हुए और अपने बेटों से बोले, “पुत्रो, इस पापिनी स्त्री को मार डालो।” लेकिन बेटों ने उनकी आज्ञा का पालन नहीं किया। |
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श्लोक 6: तब जमदग्नि ने अपने सबसे छोटे पुत्र परशुराम को अवज्ञाकारी भाइयों तथा मानसिक रूप से पाप करने वाली उसकी माता को मार डालने की आज्ञा दी। परशुराम ने तुरन्त ही अपनी माता तथा भाइयों का वध कर दिया क्योंकि उन्हें ध्यान तथा तपस्या द्वारा अर्जित अपने पिता के पराक्रम का ज्ञान था। |
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श्लोक 7: सत्यवती-पुत्र जमदग्नि परशुराम से अत्यधिक प्रसन्न हुए और उनसे इच्छानुसार वर माँगने के लिए कहा। परशुराम ने कहा, “मेरी माता तथा मेरे भाइयों को फिर से जीवित हो जाने दें और उन्हें यह स्मरण न रहे कि मैंने उन्हें मारा था। मैं आपसे इतना ही वर माँगता हूँ।” |
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श्लोक 8: तत्पश्चात् जमदग्नि के वर से भगवान् परशुराम की माता तथा उनके सारे भाई तुरन्त जीवित हो उठे और वे सभी अत्यन्त प्रसन्न हुए मानो गहरी नींद से जगे हों। परशुराम ने अपने पिता के आदेश पर अपने परिजनों का वध कर दिया था क्योंकि वे अपने पिता के बल, तपस्या तथा विद्वत्ता से परिचित थे। |
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श्लोक 9: हे राजा परीक्षित, परशुराम की श्रेष्ठ शक्ति द्वारा पराजित कार्तवीर्यार्जुन के पुत्रों को कभी सुख नहीं मिल पाया क्योंकि उन्हें अपने पिता का वध सदैव याद आता रहा। |
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श्लोक 10: एकबार जब परशुराम वसुमान तथा अन्य भाइयों के साथ आश्रम से जंगल गये हुए थे तो कार्तवीर्यार्जुन के पुत्र अवसर का लाभ उठा कर अपनी शत्रुता का बदला लेने के उद्देश्य से जमदग्नि के आश्रम में गये। |
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श्लोक 11: कार्तवीर्यार्जुन के पुत्र पापकृत्य करने के लिए कृतसंकल्प थे। अतएव जब उन्होंने जमदग्नि को अग्नि के निकट यज्ञ करते एवं उत्तमश्लोक भगवान् का ध्यान करते देखा तो उन्होंने इस अवसर का लाभ उठाकर उसे मार डाला। |
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श्लोक 12: परशुराम की माता तथा जमदग्नि की पत्नी रेणुका ने अपने पति के जीवन की भीख माँगी, किन्तु कार्तवीर्यार्जुन के पुत्र क्षत्रिय गुणों से रहित होने के कारण इतने क्रूर निकले कि उसकी याचना के बावजूद उन्होंने उसका सिर काट लिया और उसे अपने साथ लेते गये। |
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श्लोक 13: अपने पति की मृत्यु के कारण शोक से विलाप करती सती रेणुका अपने ही हाथों से अपने शरीर को पीट रही थी और जोर जोर से चिल्ला रही थी, “हे राम, मेरे पुत्र राम।” |
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श्लोक 14: यद्यपि परशुराम सहित जमदग्नि के सारे पुत्र घर से बहुत दूरी पर थे, किन्तु ज्योंही उन्होंने रेणुका की “हे राम! हे पुत्र!” की तेज पुकार सुनी, वे तुरन्त आश्रम लौट आये जहाँ उन्होंने अपने पिता को मरा हुआ पाया। |
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श्लोक 15: शोक, क्रोध, अपमान, सन्ताप तथा शोक से ग्रस्त जमदग्नि के सारे पुत्र चिल्ला पड़े, “हे साधु एवं धर्मात्मा पिता, आप हमें छोडक़र स्वर्ग लोक को चले गये हैं।” |
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श्लोक 16: इस प्रकार विलाप करते हुए परशुराम ने अपने पिता का शव अपने भाइयों को सौंप दिया और स्वयं पृथ्वी तल से सारे क्षत्रियों का अन्त करने का निश्चय करते हुए अपना फरसा ग्रहण किया। |
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श्लोक 17: हे राजन, तब परशुराम उस माहिष्मती नगरी में गये जो एक ब्राह्मण के पापपूर्ण वध के कारण पहले ही विनष्ट हो चुकी थी। उन्होंने उस नगरी के बीचोंबीच कार्तवीर्यार्जुन के पुत्रों के शरीरों से छिन्न किये गये सिरों का एक पर्वत बना दिया। |
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श्लोक 18-19: इन पुत्रों के रक्त से भगवान् परशुराम ने एक वीभत्स नदी तैयार कर दी जिससे उन राजाओं को बड़ा खतरा उत्पन्न हो गया जिनमें ब्राह्मण संस्कृति के प्रति आदरभाव नहीं था। चूँकि सरकार के अधिकारी लोग अर्थात् क्षत्रिय पापकर्म कर रहे थे अतएव परशुराम ने अपने पिता की हत्या का बदला लेने के बहाने सारे क्षत्रियों का इक्कीस बार पृथ्वी से सफाया कर दिया। निस्सन्देह, उन्होंने समन्तपञ्चक नामक स्थान पर उन सबों के रक्त से नौ झीलें उत्पन्न कर दीं। |
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श्लोक 20: तत्पश्चात् परशुराम ने अपने पिता के सिर को मृत शरीर से जोड़ दिया और पूरे शरीर एवं सिर को कुशों के ऊपर रख दिया। वे यज्ञों के द्वारा भगवान् वासुदेव की पूजा करने लगे जो समस्त देवताओं तथा हर जीव के सर्वव्यापी परमात्मा हैं। |
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श्लोक 21-22: यज्ञ-समाप्ति पर परशुराम ने पूर्वी दिशा होता को, दक्षिणी दिशा ब्रह्मा को, पश्चिमी दिशा अध्वर्यु को, उत्तरी दिशा उद्गाता को एवं चारों कोने—उत्तर पूर्व, दक्षिण पूर्व, उत्तर पश्चिम तथा दक्षिण पश्चिम—अन्य पुरोहितों को दान में दे दिये। उन्होंने मध्य भाग कश्यप को तथा आर्यावर्त उपद्रष्टा को दे दिया। शेष भाग सदस्यों अर्थात् सहयोगी पुरोहितों में बाँट दिया। |
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श्लोक 23: तत्पश्चात् भगवान् परशुराम ने यज्ञ-अनुष्ठान पूरा करके अवभृथ स्नान किया। महान् नदी सरस्वती के तट पर खड़े समस्त पापों से विमुक्त परशुराम जी बादलरहित आकाश में सूर्य के समान लग रहे थे। |
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श्लोक 24: इस प्रकार परशुराम द्वारा पूजा किये जाने पर जमदग्नि को अपनी पूर्ण स्मृति सहित पुन: जीवन प्राप्त हो गया और वे सात नक्षत्रों के समूह में सातवें ऋषि बन गये। |
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श्लोक 25: हे परीक्षित, अगले मन्वन्तर में जमदग्निपुत्र कमलनेत्र भगवान् परशुराम वैदिक ज्ञान के महान् संस्थापक होंगे। दूसरे शब्दों में, वे सप्तर्षियों में से एक होंगे। |
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श्लोक 26: आज भी भगवान् परशुराम महेन्द्र नामक पहाड़ी प्रदेश में बुद्धिमान ब्राह्मण के रूप में रह रहे हैं। पूर्ण तुष्ट एवं क्षत्रिय के सारे हथियारों को त्याग कर वे अपने उच्च चरित्र तथा कार्यों के लिए सदैव सिद्धों, गन्धर्वों एवं चारणों के द्वारा पूजित, वन्दित एवं प्रशंसित हैं। |
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श्लोक 27: इस तरह परमात्मा भगवान् हरि तथा ईश्वर ने भृगुवंश में अवतार लिया और अवाञ्छित राजाओं को अनेक बार मारकर उनके भार से पृथ्वी को उबारा। |
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श्लोक 28: महाराज गाधि का पुत्र विश्वामित्र अग्नि की लपटों के समान शक्तिशाली था; उसने तपस्या द्वारा क्षत्रिय पद से तेजस्वी ब्राह्मण का पद प्राप्त किया। |
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श्लोक 29: हे राजा परीक्षित, विश्वामित्र के १०१ पुत्र थे जिनमें से बीच के पुत्र का नाम मधुच्छन्दा था। उसके कारण अन्य सारे पुत्र मधुच्छन्दा नाम से विख्यात हुए। |
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श्लोक 30: विश्वामित्र ने अजीगर्त के पुत्र शुन:शेफ को अपने पुत्र रूप में स्वीकार कर लिया जो भृगुवंश में उत्पन्न हुआ था और देवरात नाम से भी विख्यात था। विश्वामित्र ने अपने अन्य पुत्रों को आज्ञा दी कि वे शुन:शेफ को अपना सबसे बड़ा भाई मान लें। |
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श्लोक 31: शुन:शेफ के पिता ने शुन:शेफ को राजा हरिश्चन्द्र के यज्ञ में बलिपशु के रूप में बलि दिये जाने के लिए बेच दिया। जब शुन:शेफ को यज्ञशाला में लाया गया तो उसने देवताओं से प्रार्थना की कि वे उसे छुड़ा दें और वह उनकी कृपा से छुड़ा दिया गया। |
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श्लोक 32: यद्यपि शुन:शेफ भार्गव कुल में उत्पन्न हुआ था, किन्तु आध्यात्मिक जीवन में बढ़ा-चढ़ा होने के कारण यज्ञ में सम्बधित देवताओं ने उसकी रक्षा की। फलत: वह देवरात नाम से गाधि के वंशज के रूप में भी विख्यात हुआ। |
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श्लोक 33: जब विश्वामित्र ने शुन:शेफ को सबसे बड़ा पुत्र स्वीकार करने के लिए कहा तो विश्वामित्र के पचास ज्येष्ठ मधुच्छन्दा पुत्र इसके लिए राजी नहीं हुए। फलत: विश्वामित्र क्रुद्ध हो गये और उन्होंने उन सबों को शाप दे दिया, “निकम्मे पुत्रो! तुम सारे म्लेच्छ बन जाओ क्योंकि तुम वैदिक संस्कृति के नियमों के विरुद्ध हो।” |
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श्लोक 34: जब बड़े पचास मधुच्छन्दाओं को शाप मिल गया तो मधुच्छन्दा समेत छोटे पचास पुत्र अपने पिता के पास गये और उनके प्रस्ताव को यह कहकर स्वीकार किया, “हे पिता, आप जैसा चाहेंगे हम उसी को मानेंगे।” |
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श्लोक 35: इस तरह छोटे मधुच्छान्दाओं ने शुन:शेफ को अपना बड़ा भाई मान लिया और उससे कहा “हम आपके आदेशों का पालन करेंगे।” तब विश्वामित्र ने अपने इन आज्ञाकारी पुत्रों से कहा “चूँकि तुम लोगों ने शुन:शेफ को अपना बड़ा भाई मान लिया है अतएव मैं सन्तुष्ट हूँ। तुम लोगों ने मेरे आदेश को स्वीकार करके मुझे योग्य पुत्रों का पिता बना दिया है अतएव मैं तुम सबों को आशीर्वाद देता हूँ कि तुम भी पुत्रों के पिता बनो।” |
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श्लोक 36: विश्वामित्र ने कहा “हे कुशिको, यह देवरात मेरा पुत्र है और तुममें से एक है। उसकी आज्ञा का पालन करो।” हे परीक्षित, विश्वामित्र के अन्य अनेक पुत्र थे—अष्टक, हारीत, जय तथा क्रतुमान इत्यादि। |
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श्लोक 37: विश्वामित्र ने कुछ पुत्रों को शाप दिया और अन्यों को आशीर्वाद दिया और एक पुत्र को गोद भी लिया। इस तरह कौशिक वंश में काफी विविधता थी, किन्तु सारे पुत्रों में देवरात ही ज्येष्ठ माना गया। |
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