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अध्याय 19: राजा ययाति को मुक्ति-लाभ
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संक्षेप विवरण: इस अध्याय में बताया गया है कि जब महाराज ययाति ने बकरे तथा बकरी की प्रतीकात्मक कहानी सुनाई तो उन्हें किस प्रकार मुक्ति प्राप्त हुई।
भौतिक संसार में अनेकानेक... |
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श्लोक 1: शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे महाराज परीक्षित, ययाति स्त्री पर अत्यधिक अनुरक्त था। किन्तु कालक्रम से जब वह विषय-भोग तथा इसके बुरे प्रभावों से ऊब गया तो उसने यह जीवन-शैली त्याग दी और अपनी प्रिय पत्नी को निम्नलिखित कहानी सुनाई। |
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श्लोक 2: हे मेरी प्रिय पत्नी एवं शुक्राचार्य की बेटी, इस संसार में बिल्कुल मेरी ही तरह का कोई था। तुम मेरे द्वारा कही जा रही उसके जीवन की कथा सुनो। ऐसे गृहस्थ के जीवन के विषय में सुनकर वे लोग सदैव पछताते हैं जिन्होंने गृहस्थ जीवन से वैराग्य ले लिया है। |
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श्लोक 3: एक बकरा अपनी इन्द्रियों को तुष्ट करने के लिए चरते हुए किसी जंगल में घूमते-घूमते अचानक एक कुएँ के पास आया जिसके भीतर उसने एक बकरी को निस्सहाय खड़ी देखा जो अपने सकाम कर्मों के प्रभाव से कुएँ में गिर गई थी। |
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श्लोक 4: बकरी को कुएँ से बाहर निकालने की योजना बनाकर, विषयी बकरे ने अपने तीखे सींगों से कुएँ के किनारे की मिट्टी खोद डाली जिससे वह बकरी कुएँ से बाहर सरलता से निकल सकी। |
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श्लोक 5-6: जब सुन्दर पुट्ठों वाली बकरी कुएँ से बाहर आ गई और उसने अत्यन्त सुन्दर बकरे को देखा तो उसने उसे अपना पति बनाना चाहा। जब उसने ऐसा कर लिया तो अन्य अनेक बकरियों ने भी उस बकरे को अपना पति बनाना चाहा क्योंकि उसका शारीरिक गठन अत्यन्त सुन्दर था, उसकी मूँछ तथा दाढ़ी सुन्दर थी और वह वीर्यस्खलन करने तथा संभोग कला में पटु था। अतएव, जिस तरह भूत से सताया गया मनुष्य पागलपन दिखलाता है उसी तरह वह श्रेष्ठ बकरा अनेक बकरियों से आकृष्ट होकर तथा अश्लील कार्यों में लिप्त रहने के कारण आत्म-साक्षात्कार के अपने असली कार्य को भूल गया। |
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श्लोक 7: जब उस बकरी ने, जो कुएँ में गिरी थी, देखा कि उसका प्रियतम बकरा किसी दूसरी बकरी से संभोग कर रहा है तो वह बकरे के इस कार्य को सहन नहीं कर पाई। |
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श्लोक 8: अन्य बकरी के साथ अपने पति के इस आचरण से दुखी उस बकरी ने सोचा कि यह बकरा उसका वास्तविक मित्र नहीं अपितु कठोरहृदय वाला तथा कुछ क्षण के लिए ही मित्र है। अतएव अपने पति के कामी होने के कारण उस बकरी ने उसका साथ छोड़ दिया और अपने पहले वाले स्वामी के पास लौट गई। |
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श्लोक 9: वह बकरा अत्यन्त दुखी होकर अपनी पत्नी का चाटुकार होने के कारण मार्ग में उसके पीछे पीछे हो लिया और उसने उसकी भरसक चाटुकारी करनी चाही, किन्तु वह उसे मना नहीं पाया। |
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श्लोक 10: बकरी उस ब्राह्मण के घर गई जो एक दूसरी बकरी का मालिक था और उस ब्राह्मण ने गुस्से में आकर बकरे के लम्बे लटकते अण्डकोष काट लिये। किन्तु बकरे द्वारा प्रार्थना किये जाने पर उस ब्राह्मण ने योगशक्ति से उन्हें फिर से जोड़ दिया। |
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श्लोक 11: हे प्रिये, जब बकरे के अण्डकोष जुड़ गये तो उसने कुएँ से मिली बकरी के साथ सम्भोग किया और यद्यपि वह अनेकानेक वर्षों तक भोग करता रहा, किन्तु आज भी वह पूरी तरह सन्तुष्ट नहीं हो पाया है। |
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श्लोक 12: हे सुन्दर भौहों वाली प्रिये, मैं उसी बकरे के सदृश हूँ क्योंकि मैं इतना मन्दबुद्धि हूँ कि मैं तुम्हारे सौन्दर्य से मोहित होकर आत्म-साक्षात्कार के असली कार्य को भूल गया हूँ। |
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श्लोक 13: कामी पुरुष का मन कभी तुष्ट नहीं होता भले ही उसे इस संसार की हर वस्तु प्रचुर मात्रा में उपलब्ध क्यों न हो, जैसेकि धान, जौ, अन्य अनाज, सोना, पशु तथा स्त्रियाँ इत्यादि। उसे किसी वस्तु से संतोष नहीं होता। |
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श्लोक 14: जिस तरह अग्नि में घी डालने से अग्नि शान्त नहीं होती अपितु अधिकाधिक बढ़ती जाती है उसी प्रकार निरन्तर भोग द्वारा कामेच्छाओं को रोकने का प्रयास कभी भी सफल नहीं हो सकता। (तथ्य तो यह है कि मनुष्य को स्वेच्छा से भौतिक इच्छाएँ समाप्त करनी चाहिए।) |
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श्लोक 15: जब मनुष्य द्वेष-रहित होता है और किसी का बुरा नहीं चाहता तो वह समदर्शी होता है। ऐसे व्यक्ति के लिए सारी दिशाएँ सुखमय प्रतीत होती हैं। |
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श्लोक 16: जो लोग भौतिक भोग में अत्यधिक लिप्त रहते हैं उनके लिए इन्द्रियतृप्ति को त्याग पाना अत्यन्त कठिन है। यहाँ तक कि वृद्धावस्था के कारण अशक्त व्यक्ति भी इन्द्रियतृप्ति की ऐसी इच्छाओं को नहीं त्याग पाता। अतएव जो सचमुच सुख चाहता है उसे ऐसी अतृप्त इच्छाओं को त्याग देना चाहिए क्योंकि ये सारे कष्टों की जड़ हैं। |
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श्लोक 17: मनुष्य को चाहिए कि वह अपनी माता, बहन या पुत्री के साथ एक ही आसन पर न बैठे क्योंकि इन्द्रियाँ इतनी प्रबल होती हैं कि बड़े से बड़ा विद्वान भी यौन द्वारा आकृष्ट हो सकता है। |
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श्लोक 18: मैंने इन्द्रियतृप्ति के भोगने में पूरे एक हजार वर्ष बिता दिये हैं फिर भी ऐसे आनन्द को भोगने की मेरी इच्छा नित्य बढ़ती जाती है। |
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श्लोक 19: अतएव अब मैं इन सारी इच्छाओं को त्याग दूँगा और भगवान् का ध्यान करूँगा। मनोरथों के द्वन्द्वों से तथा मिथ्या अहंकार से रहित होकर मैं जंगल में पशुओं के साथ विचरण करूँगा। |
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श्लोक 20: जो यह जानता है कि भौतिक सुख चाहे अच्छा हो या बुरा, इस जीवन में हो या अगले जीवन में, इस लोक में हो या स्वर्गलोक में हो, क्षणिक तथा व्यर्थ है और यह जानता है कि बुद्धिमान पुरुष को ऐसी वस्तुओं को भोगने या सोचने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए। वह मनुष्य आत्मज्ञानी है। ऐसा स्वरूपसिद्ध व्यक्ति भलीभाँति जानता है कि भौतिक सुख बारम्बार जन्म एवं अपनी स्वाभाविक स्थिति के विस्मरण का एकमात्र कारण है। |
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श्लोक 21: शुकदेव गोस्वामी ने कहा : अपनी पत्नी देवयानी से इस प्रकार कहकर समस्त इच्छाओं से मुक्त हुए राजा ययाति ने अपने सबसे छोटे पुत्र पूरु को बुलाया और उसे उसकी जवानी लौटाकर अपना बुढ़ापा वापस ले लिया। |
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श्लोक 22: राजा ययाति ने अपने पुत्र द्रुह्यु को दक्षिण पूर्व की दिशा, अपने पुत्र यदु को दक्षिण की दिशा, अपने पुत्र तुर्वसु को पश्चिमी दिशा और अपने चौथे पुत्र अनु को उत्तरी दिशा दे दी। इस तरह उन्होंने राज्य का बँटवारा कर दिया। |
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श्लोक 23: ययाति ने अपने सबसे छोटे पुत्र पूरु को सारे विश्व का सम्राट तथा सारी सम्पत्ति का स्वामी बना दिया और पूरु से बड़े अपने अन्य सारे पुत्रों को पूरु के अधीन कर दिया। |
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श्लोक 24: हे राजा परीक्षित, ययाति ने अनेकानेक वर्षों तक विषयवासनाओं का भोग किया, क्योंकि वे इसके आदी थे, किन्तु उन्होंने एक क्षण के भीतर अपना सर्वस्व त्याग दिया जिस तरह पंख उगते ही पक्षी अपने घोंसले से उड़ जाता है। |
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श्लोक 25: चूँकि राजा ययाति ने भगवान् वासुदेव के चरणकमलों में पूरी तरह अपने को समर्पित कर दिया था अतएव वे प्रकृति के गुणों के सारे कल्मष से मुक्त हो गये। अपने आत्मसाक्षात्कार के कारण वे अपने मन को परब्रह्म वासुदेव में स्थिर कर सके और इस तरह अन्तत: उन्हें भगवान् के पार्षद का पद प्राप्त हुआ। |
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श्लोक 26: जब देवयानी ने महाराज ययाति द्वारा कही गई बकरे-बकरी की कथा सुनी तो वह समझ गयी कि हास-परिहास के रूप में पति-पत्नी के मध्य मनोरंजनार्थ कही गई यह कथा उसमें उसकी स्वाभाविक स्थिति को जागृत करने के निमित्त थी। |
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श्लोक 27-28: तत्पश्चात् शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी समझ गई कि पति, मित्रों तथा सम्बन्धियों का सांसारिक साथ प्याऊ में यात्रियों की संगति के समान है। भगवान् की माया से समाज के सम्बन्ध, मित्रता तथा प्रेम ठीक स्वप्न की ही भाँति उत्पन्न होते हैं। कृष्ण के अनुग्रह से देवयानी ने भौतिक जगत की अपनी काल्पनिक स्थिति छोड़ दी। उसने अपने मन को पूरी तरह कृष्ण में स्थिर कर दिया और स्थूल तथा सूक्ष्म शरीरों से मोक्ष प्राप्त कर लिया। |
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श्लोक 29: हे भगवान् वासुदेव, हे पूर्ण पुरुषोत्तम परमेश्वर, आप समस्त विराट जगत के स्रष्टा हैं। आप सबों के हृदय में परमात्मा रूप में निवास करते हैं और सूक्ष्मतम से सूक्ष्मतर होते हुए भी बृहत्तम से बृहत्तर हैं तथा सर्वव्यापक हैं। आप परम शान्त लगते हैं मानो आपको कुछ करना-धरना न हो लेकिन ऐसा आपके सर्वव्यापक स्वभाव एवं सर्व ऐश्वर्य से पूर्ण होने के कारण है। अतएव मैं आपको सादर नमस्कार करती हूँ। |
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