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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 9: मुक्ति  »  अध्याय 2: मनु के पुत्रों की वंशावलियाँ  »  श्लोक 11-13
 
 
श्लोक  9.2.11-13 
वासुदेवे भगवति सर्वात्मनि परेऽमले ।
एकान्तित्वं गतो भक्त्या सर्वभूतसुहृत् सम: ॥ ११ ॥
विमुक्तसङ्ग: शान्तात्मा संयताक्षोऽपरिग्रह: ।
यद‍ृच्छयोपपन्नेन कल्पयन् वृत्तिमात्मन: ॥ १२ ॥
आत्मन्यात्मानमाधाय ज्ञानतृप्त: समाहित: ।
विचचार महीमेतां जडान्धबधिराकृति: ॥ १३ ॥
 
शब्दार्थ
वासुदेवे—वासुदेव में; भगवति—भगवान्; सर्व-आत्मनि—परमात्मा में; परे—ब्रह्म में; अमले—कल्मषरहित परम पुरुष में; एकान्तित्वम्—अविचल भाव से भक्ति करते हुए; गत:—उस पद पर स्थित होकर; भक्त्या—शुद्ध भक्ति के कारण; सर्व-भूत-सुहृत् सम:—भक्त, मित्र तथा समदर्शी होने के कारण; विमुक्त-सङ्ग:—भौतिक कल्मष से रहित; शान्त-आत्मा—शान्तिपूर्ण प्रवृत्ति; संयत—आत्मसंयमित; अक्ष:—जिसकी दृष्टि; अपरिग्रह:—किसी से दान ग्रहण कियेबिना; यत्-ऋच्छया—भगवान् की कृपा से; उपपन्नेन—शारीरिक आवश्यकताओं के लिए जो भी उपलब्ध था उससे; कल्पयन्—व्यवस्थित करके; वृत्तिम्—शरीर की आवश्यकताएँ; आत्मन:—आत्मा के लाभ हेतु; आत्मनि—मन में; आत्मानम्—परमात्मा को; आधाय—सदैव रखते हुए; ज्ञान तृप्त:—आध्यात्मिक ज्ञान से तुष्ट; समाहित:—सदैव समाधिमग्न; विचचार—सर्वत्र भ्रमण करने लगा; महीम्—पृथ्वी में; एताम्—इस; जड—मूक; अन्ध—अन्धा; बधिर—बहरा; आकृति:—के समान ।.
 
अनुवाद
 
 तत्पश्चात् पृषध्र ने सारे उत्तरदायित्वों से अवकाश ले लिया और शान्तचित्त होकर अपनी समग्र इन्द्रियों को वश में किया। भौतिक परिस्थितियों से अप्रभावित, भगवान् की कृपा से शरीर तथा आत्मा को बनाए रखने के लिए जो भी मिल जाय उसी से संतुष्ट एवं सब पर समभाव रखते हुए, वह कल्मषहीन परमात्मा भगवान् वासुदेव पर ही अपना सारा ध्यान देने लगा। इस प्रकार शुद्ध ज्ञान से पूर्णत: सन्तुष्ट एवं अपने मन को भगवान् में ही लगाकर उसने भगवान् की शुद्धभक्ति प्राप्त की और सारे विश्व में विचरण करने लगा। उसे भौतिक कार्यकलापों से कोई लगाव न रहा मानो वह बहरा, गूँगा तथा अन्धा हो।
 
 
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