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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 9: मुक्ति  »  अध्याय 2: मनु के पुत्रों की वंशावलियाँ  »  श्लोक 17
 
 
श्लोक  9.2.17 
धृष्टाद् धार्ष्टमभूत् क्षत्रं ब्रह्मभूयं गतं क्षितौ ।
नृगस्य वंश: सुमतिर्भूतज्योतिस्ततो वसु: ॥ १७ ॥
 
शब्दार्थ
धृष्टात्—मनु के दूसरे पुत्र धृष्ट से; धार्ष्टम्—धार्ष्ट नामक जाति; अभूत्—उत्पन्न हुई; क्षत्रम्—क्षत्रिय समूह से सम्बन्धित; ब्रह्म-भूयम्— ब्राह्मणों का पद; गतम्—प्राप्त किया था; क्षितौ—पृथ्वी पर; नृगस्य—मनु के अन्य पुत्र नृग का; वंश:—वंश; सुमति:—सुमति का; भूतज्योति:—भूतज्योति का; तत:—तत्पश्चात्; वसु:—वसु नाम से ।.
 
अनुवाद
 
 मनु पुत्र धृष्ट से धार्ष्ट नामक क्षत्रिय जाति निकली जिसके सदस्यों ने इस जगत में ब्राह्मणों का पद प्राप्त किया। तत्पश्चात् मनु के पुत्र नृग से सुमति और सुमति से भूतज्योति और भूतज्योति से वसु उत्पन्न हुए।
 
तात्पर्य
 यहाँ पर कहा गया है—क्षत्रं ब्रह्मभूयं गतं क्षितौ—यद्यपि धार्ष्टगण क्षत्रिय जाति के थे, किन्तु वे ब्राह्मण बनने में समर्थ हो गये थे। इससे नारद मुनि के निम्नलिखित कथन (भागवत ७.११.३५) की स्पष्ट पुष्टि होती है—

यस्य यल्लक्षणं प्रोक्तं पुंसो वर्णाभिव्यञ्जकम्।

यदन्यत्रापि दृश्येत तत्तेनैव विनिर्दिशेत् ॥

यदि एक समूह के लोगों के गुण दूसरे समूह के लोगों में पाये जायँ तो उन्हें उनके लक्षणों के आधार पर मान्यता दी जानी चाहिए न कि उस जाति के आधार पर जिसमें वे उत्पन्न हुए हों। जन्म तनिक भी महत्त्वपूर्ण नहीं होता। सारे वैदिक वाङ्मय में मनुष्य के गुणों पर बल दिया गया है।

 
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