यहाँ पर कहा गया है—क्षत्रं ब्रह्मभूयं गतं क्षितौ—यद्यपि धार्ष्टगण क्षत्रिय जाति के थे, किन्तु वे ब्राह्मण बनने में समर्थ हो गये थे। इससे नारद मुनि के निम्नलिखित कथन (भागवत ७.११.३५) की स्पष्ट पुष्टि होती है— यस्य यल्लक्षणं प्रोक्तं पुंसो वर्णाभिव्यञ्जकम्।
यदन्यत्रापि दृश्येत तत्तेनैव विनिर्दिशेत् ॥
यदि एक समूह के लोगों के गुण दूसरे समूह के लोगों में पाये जायँ तो उन्हें उनके लक्षणों के आधार पर मान्यता दी जानी चाहिए न कि उस जाति के आधार पर जिसमें वे उत्पन्न हुए हों। जन्म तनिक भी महत्त्वपूर्ण नहीं होता। सारे वैदिक वाङ्मय में मनुष्य के गुणों पर बल दिया गया है।