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श्लोक 9.2.2  |
ततोऽयजन्मनुर्देवमपत्यार्थं हरिं प्रभुम् ।
इक्ष्वाकुपूर्वजान् पुत्रान्लेभे स्वसदृशान् दश ॥ २ ॥ |
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शब्दार्थ |
तत:—तत्पश्चात्; अयजत्—पूजा की; मनु:—वैवस्वत मनु ने; देवम्—भगवान् की; अपत्य-अर्थम्—सन्तान प्राप्त करने के लिए; हरिम्—हरि की; प्रभुम्—प्रभु; इक्ष्वाकु-पूर्व-जान्—जिनमें सबसे बड़ा इक्ष्वाकु था; पुत्रान्—पुत्रों को; लेभे—पाया; स्व-सदृशान्— अपनी ही तरह के; दश—दस ।. |
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अनुवाद |
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तब पुत्र-कामना से श्राद्धदेव ने देवों के देव भगवान् हरि की पूजा की। इस तरह उसे अपने ही सदृश दस पुत्र प्राप्त हुए। इनमें से इक्ष्वाकु सबसे बड़ा था। |
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