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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 9: मुक्ति  »  अध्याय 2: मनु के पुत्रों की वंशावलियाँ  »  श्लोक 27
 
 
श्लोक  9.2.27 
मरुत्तस्य यथा यज्ञो न तथान्योऽस्ति कश्चन ।
सर्वं हिरण्मयं त्वासीद् यत् किञ्चिच्चास्य शोभनम् ॥ २७ ॥
 
शब्दार्थ
मरुत्तस्य—मरुत्त का; यथा—जिस प्रकार; यज्ञ:—यज्ञ; —नहीं; तथा—उस प्रकार; अन्य:—कोई दूसरा; अस्ति—है; कश्चन— कोई भी; सर्वम्—सभी वस्तुएँ; हिरण्-मयम्—सोने की बनी; तु—निस्सन्देह; आसीत्—था; यत् किञ्चित्—जो भी उसके पास था; —तथा; अस्य—मरुत्त का; शोभनम्—अत्यन्त सुन्दर ।.
 
अनुवाद
 
 राजा मरुत्त के यज्ञ का साज-सामान अत्यन्त सुन्दर था क्योंकि सारी वस्तुएँ सोने की बनी थीं। निस्सन्देह, उसके यज्ञ की तुलना किसी भी और यज्ञ से नहीं की जा सकती।
 
 
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