श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 9: मुक्ति  »  अध्याय 20: पूरु का वंश  » 
 
 
 
 
संक्षेप विवरण:  इस अध्याय में पूरु तथा उसके वंशज दुष्मन्त का इतिहास दिया गया है। पूरु का पुत्र जनमेजय हुआ और उसका पुत्र था प्रचिन्वान। प्रचिन्वान की परम्परा में क्रमश: प्रवीर,...
 
श्लोक 1:  शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे महाराज भरत के वंशज महाराज परीक्षित, अब मैं पूरु के वंश का वर्णन करूँगा जिसमें तुम उत्पन्न हुए हो, जिसमें अनेक राजर्षि हुए हैं, जिनसे अनेक ब्राह्मण वंशों का प्रारम्भ हुआ है।
 
श्लोक 2:  पूरु के ही इस वंश में राजा जनमेजय उत्पन्न हुआ। उसका पुत्र प्रचिन्वान था और उसका पुत्र था प्रवीर। तत्पश्चात् प्रवीर का पुत्र मनुस्यु हुआ जिसका पुत्र चारुपद था।
 
श्लोक 3:  चारुपद का पुत्र सुद्यु था और सुद्यु का पुत्र बहुगव था। बहुगव का पुत्र संयाति था, जिससे अहंयाति नामक पुत्र हुआ और फिर उससे रौद्राश्व उत्पन्न हुआ।
 
श्लोक 4-5:  रौद्राश्व के दस पुत्र थे जिनके नाम ऋतेयु, कक्षेयु, स्थण्डिलेयु, कृतेयुक, जलेयु, सन्नतेयु, धर्मेयु, सत्येयु, व्रतेयु तथा वनेयु थे। इन दसों में वनेयु सबसे छोटा था। ये दसों पुत्र रौद्राश्व के पूर्ण नियंत्रण में उसी प्रकार कार्य करते थे जिस तरह विश्वात्मा से उत्पन्न दसों इन्द्रियाँ प्राण के नियंत्रण में कार्य करती हैं। ये सभी घृताची नामक अप्सरा से उत्पन्न हुए थे।
 
श्लोक 6:  ऋतेयु से रन्तिनाव नामक पुत्र हुआ जिसके तीन पुत्र हुए जिनके नाम थे सुमति, ध्रुव तथा अप्रतिरथ। अप्रतिरथ के एकमात्र पुत्र का नाम कण्व था।
 
श्लोक 7:  कण्व का पुत्र मेधातिथि था जिसके सारे पुत्र ब्राह्मण थे और उनमें प्रमुख प्रस्कन्न था। रन्तिनाव का पुत्र सुमति, सुमति का पुत्र रेभि और रेभि का पुत्र था महाराज दुष्मन्त।
 
श्लोक 8-9:  एक बार जब राजा दुष्मन्त शिकार करने जंगल गया और अत्यधिक थक गया तो वह महाराज कण्व के आश्रम में जा पहुँचा। वहाँ उसने एक अत्यन्त सुन्दर स्त्री देखी जो लक्ष्मी जी के समान लग रही थी और वहाँ अपने तेज से सारे आश्रम को प्रकाशित करती हुई बैठी थी। स्वभावत: राजा उसके सौन्दर्य से आकृष्ट हो गया अतएव वह अपने कुछ सैनिकों के साथ उसके पास गया और उससे बोला।
 
श्लोक 10:  उस सुन्दर स्त्री को देखकर राजा अत्यधिक हर्षित हुआ और शिकार-भ्रमण से उत्पन्न उसकी सारी थकावट जाती रही। वह निस्सन्देह कामेच्छाओं के कारण अत्यधिक आकृष्ट था अतएव उसने हँसी हँसी में उससे इस प्रकार पूछा।
 
श्लोक 11:  हे सुन्दर कमल नयनों वाली, तुम कौन हो? तुम किसकी पुत्री हो? इस एकान्त वन में तुम्हारा क्या कार्य है? तुम यहाँ क्यों रह रही हो?
 
श्लोक 12:  हे अतीव सुन्दरी, मुझे ऐसा लगता है कि तुम किसी क्षत्रिय की पुत्री हो। चूँकि मैं पूरुवंशी हूँ अतएव मेरा मन कभी भी अधार्मिक रीति से किसी वस्तु का भोग करने की चेष्टा नहीं करता।
 
श्लोक 13:  शकुन्तला ने कहा : मैं विश्वामित्र की पुत्री हूँ। मेरी माता मेनका ने मुझे जंगल में छोड़ दिया था। हे वीर, अत्यन्त शक्तिशाली सन्त कण्व मुनि इसके विषय में सब कुछ जानते हैं। अब आप कहिए कि मैं आपकी किस तरह सेवा करूँ?
 
श्लोक 14:  हे कमल जैसे नेत्रों वाले राजा, कृपया बैठ जायें और हमारे यथासम्भव आतिथ्य को स्वीकार करें। हमारे पास नीवार चावल हैं जिन्हें आप ग्रहण कर सकते हैं और यदि आप चाहें तो बिना किसी हिचक के यहाँ रुक सकते हैं।
 
श्लोक 15:  राजा दुष्मन्त ने उत्तर दिया: हे सुन्दर भौहों वाली शकुन्तला, तुमने महर्षि विश्वामित्र के कुल में जन्म लिया है और तुम्हारा आतिथ्य तुम्हारे कुल के अनुरूप है। इसके अतिरिक्त राजा की कन्याएँ सामान्यतया अपना वर स्वयं चुनती हैं।
 
श्लोक 16:  जब शकुन्तला महाराज दुष्मन्त के प्रस्ताव पर मौन रही तो सहमति पूर्ण हो गई। तब विवाह के नियमों को जानने वाले राजा ने तुरन्त ही वैदिक प्रणव (ओङ्कार) का उच्चारण किया, जैसा कि गन्धर्वों में विवाह के अवसर पर किया जाता है।
 
श्लोक 17:  अमोघवीर्य राजा दुष्मन्त ने रात्रि में अपनी रानी शकुन्तला के गर्भ में वीर्य स्थापित किया और प्रात: होते ही अपने महल को लौट गया। तत्पश्चात् समयानुसार शकुन्तला ने एक पुत्र को जन्म दिया।
 
श्लोक 18:  कण्व मुनि ने वन में नवजात शिशु के सारे संस्कार सम्पन्न किये। बाद में यह बालक इतना बलवान बन गया कि वह किसी सिंह को पकड़ कर उसके साथ खेलता था।
 
श्लोक 19:  सुन्दरियों में श्रेष्ठ शकुन्तला अपने पुत्र को, जो दुर्दमनीय था तथा भगवान् का अंशावतार था, अपने साथ लेकर अपने पति दुष्मन्त के पास गई।
 
श्लोक 20:  जब राजा ने अपनी निर्दोष पत्नी तथा पुत्र दोनों को स्वीकार करने से इनकार कर दिया तो आकाश से शकुन के रूप में एक अदृश्य आवाज सुनाई दी जिसे वहाँ उपस्थित सबों ने सुना।
 
श्लोक 21:  आकाशवाणी ने कहा: हे महाराज दुष्मन्त, पुत्र वास्तव में अपने पिता का ही होता है जब कि माता मात्र चमड़े की धौंकनी के समान धारक होती है। वैदिक आदेशानुसार पिता पुत्र रूप में उत्पन्न होता है। अतएव तुम अपने पुत्र का पालन करो और शकुन्तला का अपमान न करो।
 
श्लोक 22:  हे राजा दुष्मन्त, वीर्य स्थापित करने वाला ही असली पिता है और उसका पुत्र उसे यमराज के चंगुल से छुड़ाता है। आप इस बालक के असली स्रष्टा (जन्मदाता) हैं। शकुन्तला निस्सन्देह सत्य कह रही है।
 
श्लोक 23:  शुकदेव गोस्वामी ने कहा : जब महाराज दुष्मन्त इस पृथ्वी से चले गये तो उनका पुत्र सातों द्वीपों का स्वामी चक्रवर्ती राजा बना। वह इस संसार में भगवान् का अंशावतार बतलाया जाता है।
 
श्लोक 24-26:  दुष्मन्त-पुत्र महाराज भरत के दाहिने हाथ की हथेली पर भगवान् कृष्ण के चक्र का चिन्ह था और उसके पैरों के तलवों में कमल कोश का चिन्ह था। वह महान् अनुष्ठान के द्वारा भगवान् की पूजा करके सारे विश्व का अधिपति तथा सम्राट बन गया। तब उसने मामतेय अर्थात् भृगु मुनि के पौरोहित्य में गंगा नदी के तट पर गंगा के अंतिम स्थान से लेकर उद्गम तक पचपन अश्वमेध यज्ञ किये। इसी तरह यमुना नदी के तट पर प्रयागराज के संगम से लेकर उद्गम स्थान तक अठहत्तर अश्वमेध यज्ञ किये। उसने सर्वोत्तम स्थान पर यज्ञ की अग्नि स्थापित की और अपनी विपुल सम्पत्ति ब्राह्मणों में वितरित कर दी। उसने इतनी गाएँ दान में दीं कि हजारों ब्राह्मणों में से हर एक को एक बद्व (१३०८४) गाएँ अपने हिस्से में मिलीं।
 
श्लोक 27:  महाराज दुष्मन्त के पुत्र भरत ने उन यज्ञों के लिए ३३०० घोड़े बाँधकर अन्य सारे राजाओं को विस्मय में डाल दिया। उसने देवताओं के ऐश्वर्य को भी मात कर दिया क्योंकि उसे परम गुरु हरि प्राप्त हो गये थे।
 
श्लोक 28:  जब महाराज भरत ने मष्णार नामक यज्ञ (या मष्णार नामक स्थान में यज्ञ) सम्पन्न किया तो उन्होंने दान में चौदह लाख श्रेष्ठ हाथी दिये जिनके दाँत सफेद थे और शरीर काले थे जो सुनहरे आभूषणों से ढके थे।
 
श्लोक 29:  जिस तरह कोई व्यक्ति मात्र अपने बाहुबल से स्वर्ग नहीं पहुँच सकता (क्योंकि अपने बाहुओं से कोई स्वर्ग को कैसे छू सकता है?) उसी तरह कोई व्यक्ति महाराज भरत के अद्भुत कार्यों का अनुकरण नहीं कर सकता। कोई न तो भूतकाल में ऐसे कार्य कर सका है, न ही भविष्य में कोई ऐसा कर सकेगा।
 
श्लोक 30:  जब भरत महाराज दौरे पर थे तो उन्होंने सारे किरातों, हूणों, यवनों, पौण्ड्रों, कंकों, खशों, शकों तथा ब्राह्मण संस्कृति के वैदिक नियमों के विरोधी राजाओं को परास्त किया या मार डाला।
 
श्लोक 31:  प्राचीन काल में सारे असुरों ने देवताओं को जीतकर रसातल नामक अधोलोक में शरण ले रखी थी और वे सारे देवताओं की स्त्रियों एवं कन्याओं को भी वहीं ले आये थे। किन्तु भरत महाराज ने इन सभी स्त्रियों को उनके संगियों समेत असुरों के चुंगल से छुड़ाया और उन्हें देवताओं को वापस कर दिया।
 
श्लोक 32:  महाराज भरत ने २७ हजार वर्षों तक इस पृथ्वी पर तथा स्वर्गलोकों में अपनी प्रजा की सारी आवश्यकताएँ पूरी कीं। उन्होंने सभी दिशाओं में अपने आदेश प्रसारित कर दिए और अपने सैनिक तैनात कर दिए।
 
श्लोक 33:  समस्त विश्व के शासक के रूप में सम्राट भरत के पास महान् राज्य एवं अजेय सैनिकों का ऐश्वर्य था। उनके पुत्र तथा उनका परिवार उन्हें उनका जीवन प्रतीत होता था। किन्तु अन्तत: उन्होंने इन सबों को आध्यात्मिक प्रगति में बाधक समझा अतएव उन्होंने इनका भोग बन्द कर दिया।
 
श्लोक 34:  हे राजा परीक्षित, महाराज भरत की तीन मनोहर पत्नियाँ थीं जो विदर्भ के राजा की पुत्रियाँ थीं। जब तीनों के सन्तानें हुईं तो वे राजा के समान नहीं निकलीं, अतएव इन पत्नियों ने यह सोचकर कि राजा उन्हें कृतघ्न रानियाँ समझकर त्याग देंगे, उन्होंने अपने अपने पुत्रों को मार डाला।
 
श्लोक 35:  सन्तान के लिए जब राजा का प्रयास इस तरह विफल हो गया तो उसने पुत्रप्राप्ति के लिए मरुत्स्तोम नामक यज्ञ किया। सारे मरुत्गण उससे पूर्णतया सन्तुष्ट हो गये तो उन्होंने उसे भरद्वाज नामक पुत्र उपहार में दिया।
 
श्लोक 36:  बृहस्पति देव ने अपने भाई की पत्नी ममता पर मोहित होने पर उसके गर्भवती होते हुए भी उसके साथ संभोग करना चाहा। उसके गर्भ के भीतर के पुत्र ने मना किया लेकिन बृहस्पति ने उसे शाप दे दिया और बलात् ममता के गर्भ में वीर्य स्थापित कर दिया।
 
श्लोक 37:  ममता अत्यन्त भयभीत थी कि अवैध पुत्र उत्पन्न करने के कारण उसका पति उसे छोड़ सकता है अतएव उसने बालक को त्याग देने का विचार किया। लेकिन तब देवताओं ने उस बालक का नामकरण करके सारी समस्या हल कर दी।
 
श्लोक 38:  बृहस्पति ने ममता से कहा, “अरी मूर्ख! यद्यपि यह बालक अन्य पुरुष की पत्नी और किसी दूसरे पुरुष के वीर्य से उत्पन्न हुआ है, किन्तु तुम इसका पालन करो।” यह सुनकर ममता ने उत्तर दिया, “अरे बृहस्पति, तुम इसको पालो।” ऐसा कहकर बृहस्पति तथा ममता उसे छोडक़र चले गये। इस तरह बालक का नाम भरद्वाज पड़ा।
 
श्लोक 39:  यद्यपि देवताओं ने बालक को पालने के लिए प्रोत्साहित किया था, किन्तु ममता ने अवैध जन्म के कारण उस बालक को व्यर्थ समझ कर उसे छोड़ दिया। फलस्वरूप, मरुत्गण देवताओं ने बालक का पालन किया और जब महाराज भरत सन्तान के अभाव से निराश हो गए तो उन्हें यही बालक पुत्र-रूप में भेंट किया गया।
 
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