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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 9: मुक्ति  »  अध्याय 21: भरत का वंश  »  श्लोक 6
 
 
श्लोक  9.21.6 
तस्मै संव्यभजत् सोऽन्नमाद‍ृत्य श्रद्धयान्वित: ।
हरिं सर्वत्र संपश्यन् स भुक्त्वा प्रययौ द्विज: ॥ ६ ॥
 
शब्दार्थ
तस्मै—उस (ब्राह्मण) को; संव्यभजत्—बाँट कर अपना हिस्सा दे दिया; स:—उसने; अन्नम्—भोजन; आदृत्य—आदरपूर्वक; श्रद्धया अन्वित:—अत्यन्त श्रद्धापूर्वक; हरिम्—भगवान् को; सर्वत्र—सभी जगह, हर जीव के हृदय में; सम्पश्यन्—देखते हुए; स:— वह; भुक्त्वा—भोजन करके; प्रययौ—उस स्थान से चला गया; द्विज:—ब्राह्मण ।.
 
अनुवाद
 
 चूँकि रन्तिदेव को सर्वत्र एवं हर जीव में भगवान् की उपस्थिति का बोध होता था अतएव वह बड़े ही श्रद्धा-सम्मान से अतिथि का स्वागत करता और उसे भोजन का अंश देता था। उस ब्राह्मण अतिथि ने अपना भाग खाया और फिर चला गया।
 
तात्पर्य
 रन्तिदेव को हर जीव में भगवान् के दर्शन होते थे, किन्तु वह कभी यह नहीं सोचता था कि चूँकि भगवान् हर जीव में हैं अतएव हर जीव भगवान् है। इसी तरह वह जीव जीव में भेद नहीं मानता था। उसे ब्राह्मण तथा चण्डाल दोनों में भगवान् की उपस्थिति प्रतीत होती थी। यह असली समदृष्टि है जैसा कि स्वयं भगवान् ने भगवद्गीता (५.१८) में पुष्टि की है—

विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।

शुनि चैव श्वपाके च पण्डिता: समदर्शिन: ॥

“असली ज्ञान होने से विनीत साधु, विद्वान तथा नम्र ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ते तथा चण्डाल को समान दृष्टि से देखता है।” पण्डित अर्थात् विद्वान व्यक्ति हर जीव में भगवान् की उपस्थिति देखता है। यद्यपि आजकल तथाकथित दरिद्रनारायण को वरीयता देने की प्रथा बन चुकी है, किन्तु रन्तिदेव के पास किसी एक को वरीयता देने का कोई कारण नहीं था। यह विचार कि चूँकि नारायण दरिद्र अर्थात् गरीब के हृदय में उपस्थित है अतएव गरीब को दरिद्रनारायण कहा जाय, भ्रान्त धारणा है। ऐसे तर्क से तो कूकर-सूकर भी नारायण बन जाएँगे क्योंकि भगवान् उन सबों के हृदयों में भी रहते हैं। हमें ऐसा नहीं सोचना चाहिए कि रन्तिदेव की विचारधारा ऐसी थी। वे तो हर एक को भगवान् का अंश मानते थे (हरि सम्बन्धिवस्तुन: )। ऐसा नहीं है कि हर कोई भगवान् है। ऐसा सिद्धान्त मायावादियों का है जो सदा भ्रामक है और रन्तिदेव ने इसे कभी भी स्वीकार नहीं किया।

 
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