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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 9: मुक्ति  »  अध्याय 4: दुर्वासा मुनि द्वारा अम्बरीष महाराज का अपमान  »  श्लोक 11
 
 
श्लोक  9.4.11 
गृहाण द्रविणं दत्तं मत्सत्रपरिशेषितम् ।
इत्युक्त्वान्तर्हितो रुद्रो भगवान् धर्मवत्सल: ॥ ११ ॥
 
शब्दार्थ
गृहाण—अब ग्रहण करो; द्रविणम्—सारा धन; दत्तम्—दिया गया; मत्-सत्र-परिशेषितम्—मेरे लिए किये गये यज्ञ का अवशेष; इति उक्त्वा—ऐसा कहकर; अन्तर्हित:—ओझल हो गये; रुद्र:—शिवजी; भगवान्—अत्यन्त शक्तिशाली देवता; धर्म-वत्सल:—धार्मिक सिद्धान्तों का दृढ़ता से पालन करने वाले ।.
 
अनुवाद
 
 शिवजी ने कहा : “अब तुम यज्ञ का बचा सारा धन ले सकते हो क्योंकि मैं इसे तुम्हें दे रहा हूँ।” यह कहकर धार्मिक सिद्धान्तों में अटल रहने वाले शिवजी उस स्थान से अदृश्य हो गये।
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥