श्रीशुक उवाच
एवं भगवतादिष्टो दुर्वासश्चक्रतापित: ।
अम्बरीषमुपावृत्य तत्पादौ दु:खितोऽग्रहीत् ॥ १ ॥
शब्दार्थ
श्री-शुक: उवाच—श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; एवम्—इस तरह से; भगवता आदिष्ट:—भगवान् द्वारा आदेशित होकर; दुर्वासा:— दुर्वासा; चक्र-तापित:—सुदर्शन चक्र के द्वारा अत्यन्त सताया जाकर; अम्बरीषम्—महाराज अम्बरीष के; उपावृत्य—पास पहुँचकर; तत्-पादौ—उसके चरणकमलों को; दु:खित:—अत्यन्त दुखी होकर; अग्रहीत्—पकड़ लिया ।.
अनुवाद
शुकदेव गोस्वामी ने कहा : जब भगवान् विष्णु ने दुर्वासा मुनि को इस प्रकार सलाह दी तो सुदर्शन चक्र से अत्यधिक उत्पीडि़त मुनि तुरन्त ही महाराज अम्बरीष के पास पहुँचे। उन्होंने अत्यन्त दुखित होने के कारण राजा के चरणकमलों पर गिरकर उन्हें पकड़ लिया।
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥