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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 9: मुक्ति  »  अध्याय 6: सौभरि मुनि का पतन  »  श्लोक 15-16
 
 
श्लोक  9.6.15-16 
स सन्नद्धो धनुर्दिव्यमादाय विशिखाञ्छितान् ।
स्तूयमानस्तमारुह्य युयुत्सु: ककुदि स्थित: ॥ १५ ॥
तेजसाप्यायितो विष्णो: पुरुषस्य महात्मन: ।
प्रतीच्यां दिशि दैत्यानां न्यरुणत् त्रिदशै: पुरम् ॥ १६ ॥
 
शब्दार्थ
स:—पुरञ्जय; सन्नद्ध:—पूरी तरह युक्त होकर; धनु: दिव्यम्—श्रेष्ठ या दिव्य धनुष; आदाय—लेकर; विशिखान्—तीरों को; शितान्—अत्यन्त पैने; स्तूयमान:—अत्यधिक प्रशंसित होकर; तम्—उस (बैल पर); आरुह्य—चढक़र; युयुत्सु:—लडऩे के लिए तैयार होकर; ककुदि—बैल के डिल्ले पर; स्थित:—स्थित; तेजसा—बल से; आप्यायित:—कृपाप्राप्त; विष्णो:—विष्णु के; पुरुषस्य—परम पुरुष; महा-आत्मन:—परमात्मा; प्रतीच्याम्—पश्चिमी; दिशि—दिशा में; दैत्यानाम्—असुरों का; न्यरुणत्—कब्जे में कर लिया; त्रिदशै:—देवताओं को साथ लेकर; पुरम्—आवास को ।.
 
अनुवाद
 
 कवच से भलीभाँति सुरक्षित होकर और युद्ध करने की इच्छा से पुरञ्जय ने अपना दिव्य धनुष तथा अत्यन्त तीक्ष्ण बाण धारण किया और देवताओं द्वारा अत्यधिक प्रशंसित होकर वह बैल (इन्द्र) की पीठ पर सवार हुआ तथा उसके डिल्ले पर बैठ गया। इसलिए वह ककुत्स्थ कहलाता है। परमात्मा तथा परम पुरुष भगवान् विष्णु से शक्ति प्राप्त करके पुरञ्जय उस बड़े बैल पर सवार हो गया, इसलिए वह इन्द्रवाह कहलाता है। देवताओं को साथ लेकर उसने पश्चिम में असुरों के निवासस्थानों पर आक्रमण कर दिया।
 
 
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