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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 9: मुक्ति  »  अध्याय 6: सौभरि मुनि का पतन  »  श्लोक 39-40
 
 
श्लोक  9.6.39-40 
यमुनान्तर्जले मग्नस्तप्यमान: परन्तप: ।
निर्वृतिं मीनराजस्य द‍ृष्ट्वा मैथुनधर्मिण: ॥ ३९ ॥
जातस्पृहो नृपं विप्र: कन्यामेकामयाचत ।
सोऽप्याह गृह्यतां ब्रह्मन् कामं कन्या स्वयंवरे ॥ ४० ॥
 
शब्दार्थ
यमुना-अन्त:-जले—यमुना नदी के गहरे जल में; मग्न:—पूरी तरह डूबकर; तप्यमान:—तपस्या करते हुए; परम्—असामान्य; तप:— तपस्या; निर्वृतिम्—आनन्द, सुख; मीन-राजस्य—बड़ी मछली का; दृष्ट्वा—देखकर; मैथुन-धर्मिण:—मैथुनरत; जात-स्पृह:—मन चलायमान हो उठा; नृपम्—राजा (मान्धाता) के पास; विप्र:—ब्राह्मण (सौभरि ऋषि); कन्याम् एकाम्—इकलौती कन्या; अयाचत—माँगा; स:—उस, राजा ने; अपि—भी; आह—कहा; गृह्यताम्—आप ले सकते हैं; ब्रह्मन्—हे ब्राह्मण; कामम्—चाहती है; कन्या—पुत्री; स्वयंवरे—स्वयं चुनाव में, स्वयंवर में ।.
 
अनुवाद
 
 सौभरि ऋषि यमुना नदी के गहरे जल में तपस्या में तल्लीन थे कि उन्होंने मछलियों के एक जोड़े को संभोगरत देखा। इस तरह उन्होंने विषयी जीवन का सुख अनुभव किया जिससे प्रेरित होकर वे राजा मान्धाता के पास गये और उनसे उनकी एक कन्या की याचना की। इस याचना के उत्तर में राजा ने कहा, “हे ब्राह्मण, मेरी कोई भी पुत्री अपनी इच्छा से किसी को भी पति चुन सकती है।”
 
तात्पर्य
 यहाँ सौभरि ऋषि की कहानी का शुभारम्भ होता है। विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर के अनुसार मान्धाता मथुरा का राजा था और सौभरि ऋषि यमुना नदी के गहरे जल में तपस्या कर रहे थे। जब ऋषि में कामेच्छा जगी तो वे जल से बाहर निकले और राजा मान्धाता के पास जाकर उन्होंने कहा कि वे अपनी एक पुत्री का विवाह उनसे कर दें।
 
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