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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 9: मुक्ति  »  अध्याय 6: सौभरि मुनि का पतन  »  श्लोक 41-42
 
 
श्लोक  9.6.41-42 
स विचिन्त्याप्रियं स्त्रीणां जरठोऽहमसन्मत: ।
वलीपलित एजत्क इत्यहं प्रत्युदाहृत: ॥ ४१ ॥
साधयिष्ये तथात्मानं सुरस्त्रीणामभीप्सितम् ।
किं पुनर्मनुजेन्द्राणामिति व्यवसित: प्रभु: ॥ ४२ ॥
 
शब्दार्थ
स:—उस, सौभरि मुनि ने; विचिन्त्य—अपने आप सोचकर; अप्रियम्—अच्छा न लगने वाला; स्त्रीणाम्—स्त्रियों के द्वारा; जरठ:— वृद्ध होने के कारण अशक्त; अहम्—मैं; असत्-मत:—उनके द्वारा अनिच्छित; वली—झुर्री पड़ा; पलित:—सफेद बालों वाला; एजत्-क:—सदा सिर हिलता हुआ; इति—इस प्रकार; अहम्—मैं; प्रत्युदाहृत:—त्यक्त; साधयिष्ये—मैं इस तरह करूँगा; तथा— जिस तरह; आत्मानम्—मेरा शरीर; सुर-स्त्रीणाम्—स्वर्ग की स्त्रियों की; अभीप्सितम्—इच्छित; किम्—क्या कहूँ; पुन:—फिर भी; मनुज-इन्द्राणाम्—संसार के राजाओं की कन्याओं का; इति—इस तरह; व्यवसित:—निश्चित; प्रभु:—शक्तिशाली योगी सौभरि ने ।.
 
अनुवाद
 
 सौभरि मुनि ने सोचा: मैं वृद्धावस्था के कारण अब निर्बल हो गया हूँ। मेरे बाल सफेद हो चुके हैं, मेरी चमड़ी झूल रही है और मेरा सिर सदा हिलता रहता है। इसके अतिरिक्त मैं योगी हूँ। अतएव ये स्त्रियाँ मुझे पसन्द नहीं करतीं। चूँकि राजा ने मुझे तिरस्कृत कर दिया है अतएव मैं अपने शरीर को ऐसा बनाऊँगा कि मैं संसारी राजाओं की कन्याओं का ही नहीं अपितु सुर-सुन्दरियों के लिए भी अभीष्ट बन जाऊँ।
 
 
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