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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 9: मुक्ति  »  अध्याय 6: सौभरि मुनि का पतन  »  श्लोक 50
 
 
श्लोक  9.6.50 
अहो इमं पश्यत मे विनाशं
तपस्विन: सच्चरितव्रतस्य ।
अन्तर्जले वारिचरप्रसङ्गात्
प्रच्यावितं ब्रह्म चिरं धृतं यत् ॥ ५० ॥
 
शब्दार्थ
अहो—ओह; इमम्—यह; पश्यत—जरा देखो तो; मे—मेरा; विनाशम्—पतन; तपस्विन:—तपस्वी; सत्-चरित—अच्छे चरित्र वाला; व्रतस्य—व्रत धारण करने वाले का; अन्त:-जले—जल के भीतर; वारि-चर-प्रसङ्गात्—जलचरों के मैथुन कार्य से; प्रच्यावितम्— गिरा हुआ; ब्रह्म—ब्रह्म-साक्षात्कार या तपस्या के कार्यों से; चिरम्—दीर्घकाल तक; धृतम्—किये गये; यत्—जो ।.
 
अनुवाद
 
 ओह! गम्भीर जल के भीतर तपस्या करने पर भी तथा साधु पुरुषों द्वारा अभ्यास किये जाने वाले सारे विधि-विधानों का पालन करते हुए भी मैंने मात्र मछली के मैथुन-सान्निध्य के कारण अपनी दीर्घकालीन तपस्या का फल हाथों से जाने दिया। हर एक को इस पतन को देखकर इससे सीख लेनी चाहिए।
 
 
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