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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 9: मुक्ति  »  अध्याय 6: सौभरि मुनि का पतन  »  श्लोक 54
 
 
श्लोक  9.6.54 
तत्र तप्‍त्वा तपस्तीक्ष्णमात्मदर्शनमात्मवान् ।
सहैवाग्निभिरात्मानं युयोज परमात्मनि ॥ ५४ ॥
 
शब्दार्थ
तत्र—जंगल में; तप्त्वा—तपस्या करते हुए; तप:—तपस्या के नियम; तीक्ष्णम्—अत्यन्त कठोर; आत्म-दर्शनम्—आत्म-साक्षात्कार में सहायक; आत्मवान्—आत्म से अभिज्ञ; सह—साथ में; एव—निश्चय ही; अग्निभि:—अग्नियों के; आत्मानम्—स्वयं को; युयोज— लगाया; परम-आत्मनि—परमात्मा में ।.
 
अनुवाद
 
 जब आत्मवान सौभरि मुनि जंगल में चले गये तो उन्होंने कठोर तपस्याएँ की। इस तरह अन्तत: मृत्यु के समय उन्होंने अग्नि में स्वयं को भगवान् की सेवा में लगा दिया।
 
तात्पर्य
 मृत्यु के समय अग्नि स्थूल शरीर को जला डालती है और यदि भौतिक भोग की कोई इच्छा नहीं होती तो सूक्ष्म शरीर का भी अन्त हो जाता है, केवल शुद्ध आत्मा बचा रहता है। इसकी पुष्टि भगवद्गीता में हुई है (त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति )। यदि मनुष्य स्थूल तथा सूक्ष्म दोनों प्रकार के भौतिक देहों के बन्धन से मुक्त होता है और शुद्ध आत्मा बना रहता है तो वह भगवान् की सेवा करने के लिए भगवद्धाम वापस जाता है। त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति—वह भगवद्धाम को वापस जाता है। इस तरह ऐसा लगता है कि सौभरि मुनि को वह पूर्ण अवस्था प्राप्त हुई थी।
 
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