श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 9: मुक्ति  »  अध्याय 8: भगवान् कपिलदेव से सगर-पुत्रों की भेंट  »  श्लोक 9-10
 
 
श्लोक  9.8.9-10 
प्रागुदीच्यां दिशि हयं दद‍ृशु: कपिलान्तिके ।
एष वाजिहरश्चौर आस्ते मीलितलोचन: ॥ ९ ॥
हन्यतां हन्यतां पाप इति षष्टिसहस्रिण: ।
उदायुधा अभिययुरुन्मिमेष तदा मुनि: ॥ १० ॥
 
शब्दार्थ
प्राक्-उदीच्याम्—उत्तरपूर्व; दिशि—दिशा में; हयम्—घोड़े को; ददृशु:—देखा; कपिल-अन्तिके—कपिल के आश्रम के निकट; एष:—यह रहा; वाजि-हर:—घोड़ा चुराने वाला; चौर:—चोर; आस्ते—स्थित; मीलित-लोचन:—आँखें बन्द किये; हन्यताम् हन्यताम्—मारो मारो; पाप:—पापी पुरुष; इति—इस प्रकार; षष्टि-सहस्रिण:—सगर के साठ हजार पुत्र; उदायुधा:—अपने-अपने हथियार लिए; अभिययु:—पास आये; उन्मिमेष—अपनी आँखें खोलीं; तदा—उस समय; मुनि:—कपिल मुनि ने ।.
 
अनुवाद
 
 तत्पश्चात् जब उन्होंने उत्तरपूर्व दिशा में कपिल मुनि के आश्रम के निकट घोड़े को देखा तो वे बोल उठे “यह रहा घोड़ाचोर! यह आँखें बन्द किये बैठा है। यह निश्चय ही बड़ा पापी है। इसे मारो, मारो।” इस प्रकार चिल्लाते हुए सगर के साठ हजार पुत्रों ने एकसाथ अपने हथियार उठा लिये। जब वे मुनि के निकट पहुँचे तो मुनि ने अपनी आँखें खोलीं।
 
 
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