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भगवद्-गीता  »  अध्याय 11: विराट रूप  »  श्लोक 21
 
 
श्लोक  11.21 
अमी हि त्वां सुरसङ्घा विशन्ति
केचिद्भ‍ीता: प्राञ्जलयो गृणन्ति ।
स्वस्तीत्युक्त्वा महर्षिसिद्धसङ्घा:
स्तुवन्ति त्वां स्तुतिभि: पुष्कलाभि: ॥ २१ ॥
 
शब्दार्थ
अमी—वे सब; हि—निश्चय ही; त्वाम्—आपको; सुर-सङ्घा:—देव समूह; विशन्ति— प्रवेश कर रहे हैं; केचित्—उनमें से कुछ; भीता:—भयवश; प्राञ्जलय:—हाथ जोड़े; गृणन्ति—स्तुति कर रहे हैं; स्वस्ति—कल्याण हो; इति—इस प्रकार; उक्त्वा—कहकर; महा-ऋषि—महर्षिगण; सिद्ध-सङ्घा:—सिद्ध लोग; स्तुवन्ति—स्तुति कर रहे हैं; त्वाम्—आपकी; स्तुतिभि:—प्रार्थनाओं से; पुष्कलाभि:—वैदिक स्तोत्रों से ।.
 
अनुवाद
 
 देवों का सारा समूह आपकी शरण ले रहा है और आपमें प्रवेश कर रहा है। उनमें से कुछ अत्यन्त भयभीत होकर हाथ जोड़े आपकी प्रार्थना कर रहे हैं। महर्षियों तथा सिद्धों के समूह “कल्याण हो” कहकर वैदिक स्तोत्रों का पाठ करते हुए आपकी स्तुति कर रहे हैं।
 
तात्पर्य
 समस्त लोकों के देवता विश्वरूप की भयानकता तथा प्रदीप्त तेज से इतने भयभीत थे कि वे रक्षा के लिए प्रार्थना करने लगे।
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥