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भगवद्-गीता  »  अध्याय 11: विराट रूप  »  श्लोक 40
 
 
श्लोक  11.40 
नम: पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते
नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व ।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं
सर्वं समाप्‍नोषि ततोऽसि सर्व: ॥ ४० ॥
 
शब्दार्थ
नम:—नमस्कार; पुरस्तात्—सामने से; अथ—भी; पृष्ठत:—पीछे से; ते—आपको; नम: अस्तु—मैं नमस्कार करता हूँ; ते—आपको; सर्वत:—सभी दिशाओं से; एव—निस्सन्देह; सर्व—क्योंकि आप सब कुछ हैं; अनन्त-वीर्य—असीम पौरुष; अमित विक्रम:—तथा असीम बल; त्वम्—आप; सर्वम्—सब कुछ; समाप्नोषि—आच्छादित करते हो; तत:—अतएव; असि—हो; सर्व:—सब कुछ ।.
 
अनुवाद
 
 आपको आगे, पीछे तथा चारों ओर से नमस्कार है। हे असीम शक्ति! आप अनन्त पराक्रम के स्वामी हैं। आप सर्वव्यापी हैं, अत: आप सब कुछ हैं।
 
तात्पर्य
 कृष्ण के प्रेम से अभिभूत उनका मित्र अर्जुन सभी दिशाओं से उनको नमस्कार कर रहा है। वह स्वीकार करता है कि कृष्ण समस्त बल तथा पराक्रम के स्वामी हैं और युद्धभूमि में एकत्र समस्त योद्धाओं से कहीं अधिक श्रेष्ठ हैं। विष्णुपुराण में (१.९.६९) कहा गया है—

योऽयं तवागतो देव समीपं देवतागण:।

स त्वमेव जगत्स्रष्टा यत: सर्वगतो भवान् ॥

“आपके समक्ष जो भी आता है, चाहे वह देवता ही क्यों न हो, हे भगवान्! वह आपके द्वारा ही उत्पन्न है।”

 
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>  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥