भगवान् ने कहा—हे अर्जुन, हे पार्थ! अब तुम मेरे ऐश्वर्य को, सैकड़ों-हजारों प्रकार के दैवी तथा विविध रंगों वाले रूपों को देखो।
तात्पर्य
अर्जुन कृष्ण के विश्वरूप का दर्शनाभिलाषी था, जो दिव्य होकर भी दृश्य जगत् के लाभार्थ प्रकट होता है। फलत: वह प्रकृति के अस्थाई काल द्वारा प्रभावित है। जिस प्रकार प्रकृति (माया) प्रकट-अप्रकट है, उसी तरह कृष्ण का यह विश्वरूप भी प्रकट तथा अप्रकट होता रहता है। यह कृष्ण के अन्य रूपों की भाँति वैकुण्ठ में नित्य नहीं रहता। जहाँ तक भक्त की बात है, वह विश्वरूप देखने के लिए तनिक भी इच्छुक नहीं रहता, लेकिन चूँकि अर्जुन कृष्ण को इस रूप में देखना चाहता था, अत: वे यह रूप प्रकट करते हैं। सामान्य व्यक्ति इस रूप को नहीं देख सकता। श्रीकृष्ण द्वारा शक्ति प्रदान किये जाने पर ही इसके दर्शन हो सकते हैं।
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