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भगवद्-गीता  »  अध्याय 14: प्रकृति के तीन गुण  »  श्लोक 17
 
 
श्लोक  14.17 
सत्त्वात्सञ्जायते ज्ञानं रजसो लोभ एव च ।
प्रमादमोहौ तमसो भवतोऽज्ञानमेव च ॥ १७ ॥
 
शब्दार्थ
सत्त्वात्—सतोगुण से; सञ्जायते—उत्पन्न होता है; ज्ञानम्—ज्ञान; रजस:—रजोगुण से; लोभ:—लालच; एव—निश्चय ही; —भी; प्रमाद—पागलपन; मोहौ—तथा मोह; तमस:—तमोगुण से; भवत:—होता है; अज्ञानम्—अज्ञान; एव—निश्चय ही; — भी ।.
 
अनुवाद
 
 सतोगुण से वास्तविक ज्ञान उत्पन्न होता है, रजोगुण से लोभ उत्पन्न होता है और तमोगुण से अज्ञान, प्रमाद और मोह उत्पन्न होते हैं।
 
तात्पर्य
 चूँकि वर्तमान सभ्यता जीवों के लिए अधिक अनुकूल नहीं है, अतएव उनके लिए कृष्णभावनामृत की संस्तुति की जाती है। कृष्णभावनामृत के माध्यम से समाज में सतोगुण विकसित होगा। सतोगुण विकसित हो जाने पर लोग वस्तुओं को असली रूप में देख सकेंगे। तमोगुण में रहने वाले लोग पशु-तुल्य होते हैं और वे वस्तुओं को स्पष्ट रूप में नहीं देख पाते। उदाहरणार्थ, तमोगुण में रहने के कारण लोग यह नहीं देख पाते कि जिस पशु का वे वध कर रहे हैं, उसी के द्वारा वे अगले जन्म में मारे जाएँगे। वास्तविक ज्ञान की शिक्षा न मिलने के कारण वे अनुत्तरदायी बन जाते हैं। इस उच्छृंखलता को रोकने के लिए जनता में सतोगुण उत्पन्न करने वाली शिक्षा देना आवश्यक है। सतोगुण में शिक्षित हो जाने पर वे गम्भीर बनेंगे और वस्तुओं को उनके सही रूप में जान सकेंगे। तब लोग सुखी तथा सम्पन्न हो सकेंगे। भले ही अधिकांश लोग सुखी तथा समृद्ध न बन पायें, लेकिन यदि जनता का कुछ भी अंश कृष्णभावनामृत विकसित कर लेता है और सतोगुणी बन जाता है, तो सारे विश्व में शान्ति तथा सम्पन्नता की सम्भावना है। नहीं तो, यदि विश्व के लोग रजोगुण तथा तमोगुण में लगे रहे तो शान्ति और सम्पन्नता नहीं रह पायेगी। रजोगुण में लोग लोभी बन जाते हैं और इन्द्रिय-भोग की उनकी लालसा की कोई सीमा नहीं होती। कोई भी यह देख सकता है कि भले ही किसी के पास प्रचुर धन तथा इन्द्रियतृप्ति के लिए पर्याप्त साधन हों, लेकिन उसे न तो सुख मिलता है, न मन:शान्ति। ऐसा संभव भी नहीं है, क्योंकि वह रजोगुण में स्थित है। यदि कोई रंचमात्र भी सुख चाहता है, तो धन उसकी सहायता नहीं कर सकता, उसे कृष्णभावनामृत के अभ्यास द्वारा अपने आपको सतोगुण में स्थित करना होगा। जब कोई रजोगुण में रत रहता है, तो वह मानसिक रूप से ही अप्रसन्न नहीं रहता अपितु उसकी वृत्ति तथा उसका व्यवसाय भी अत्यन्त कष्टकारक होते हैं। उसे अपनी मर्यादा बनाये रखने के लिए अनेकानेक योजनाएँ बनानी होती हैं। यह सब कष्टकारक है। तमोगुण में लोग पागल (प्रमत्त) हो जाते हैं। अपनी परिस्थितियों से ऊब कर के मद्य-सेवन की शरण ग्रहण करते हैं और इस प्रकार वे अज्ञान के गर्त में अधिकाधिक गिरते हैं। जीवन में उनका भविष्य-जीवन अन्धकारमय होता है।
 
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