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भगवद्-गीता  »  अध्याय 14: प्रकृति के तीन गुण  »  श्लोक 6
 
 
श्लोक  14.6 
तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम् ।
सुखसङ्गेन बध्‍नाति ज्ञानसङ्गेन चानघ ॥ ६ ॥
 
शब्दार्थ
तत्र—वहाँ; सत्त्वम्—सतोगुण; निर्मलत्वात्—भौतिक जगत् में शुद्धतम होने के कारण; प्रकाशकम्—प्रकाशित करता हुआ; अनामयम्—किसी पापकर्म के बिना; सुख—सुख की; सङ्गेन—संगति के द्वारा; बध्नाति—बाँधता है; ज्ञान—ज्ञान की; सङ्गेन—संगति से; —भी; अनघ—हे पापरहित ।.
 
अनुवाद
 
 हे निष्पाप! सतोगुण अन्य गुणों की अपेक्षा अधिक शुद्ध होने के कारण प्रकाश प्रदान करने वाला और मनुष्यों को सारे पाप कर्मों से मुक्त करने वाला है। जो लोग इस गुण में स्थित होते हैं, वे सुख तथा ज्ञान के भाव से बँध जाते हैं।
 
तात्पर्य
 प्रकृति द्वारा बद्ध किये गये जीव कई प्रकार के होते हैं। कोई सुखी है और कोई अत्यन्त कर्मठ है, तो दूसरा असहाय है। इस प्रकार के मनोभाव ही प्रकृति में जीव की बद्धावस्था के कारणस्वरूप हैं। भगवद्गीता के इस अध्याय में इसका वर्णन हुआ है कि वे किस प्रकार भिन्न-भिन्न प्रकार से बद्ध हैं। सर्वप्रथम सतोगुण पर विचार किया गया है। इस जगत् में सतोगुण विकसित करने का लाभ यह होता है कि मनुष्य अन्य बद्धजीवों की तुलना में अधिक चतुर हो जाता है। सतोगुणी पुरुष को भौतिक कष्ट उतना पीडि़त नहीं करते और उसमें भौतिक ज्ञान की प्रगति करने की सूझ होती है। इसका प्रतिनिधि ब्राह्मण है, जो सतोगुणी माना जाता है। सुख का यह भाव इस विचार के कारण है कि सतोगुण में पापकर्मों से प्राय: मुक्त रहा जाता है। वास्तव में वैदिक साहित्य में यह कहा गया है कि सतोगुण का अर्थ ही है अधिक ज्ञान तथा सुख का अधिकाधिक अनुभव।

सारी कठिनाई यह है कि जब मनुष्य सतोगुण में स्थित होता है, तो उसे ऐसा अनुभव होता है कि वह ज्ञान में आगे है और अन्यों की अपेक्षा श्रेष्ठ है। इस प्रकार वह बद्ध हो जाता है। इसके उदाहरण वैज्ञानिक तथा दार्शनिक हैं। इनमें से प्रत्येक को अपने ज्ञान का गर्व रहता है और चूँकि वे अपने रहन-सहन को सुधार लेते हैं, अतएव उन्हें भौतिक सुख की अनुभूति होती है। बद्ध जीवन में अधिक सुख का यह भाव उन्हें भौतिक प्रकृति के गुणों से बाँध देता है। अतएव वे सतोगुण में रहकर कर्म करने के प्रति आकृष्ट होते हैं। और जब तक इस प्रकार कर्म करते रहने का आकर्षण बना रहता है, तब तक उन्हें किसी न किसी प्रकार का शरीर धारण करना होता है। इस प्रकार उनकी मुक्ति की या वैकुण्ठलोक जाने की कोई सम्भावना नहीं रह जाती। वे बारम्बार दार्शनिक, वैज्ञानिक या कवि बनते रहते हैं और बारम्बार जन्म-मृत्यु के उन्हीं दोषों में बँधते रहते हैं। लेकिन माया-मोह के कारण वे सोचते हैं कि इस प्रकार का जीवन आनन्दप्रद है।

 
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