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भगवद्-गीता  »  अध्याय 14: प्रकृति के तीन गुण  »  श्लोक 7
 
 
श्लोक  14.7 
रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासङ्गसमुद्भ‍वम् ।
तन्निबध्‍नाति कौन्तेय कर्मसङ्गेन देहिनम् ॥ ७ ॥
 
शब्दार्थ
रज:—रजोगुण; राग-आत्मकम्—आकांक्षा या काम से उत्पन्न; विद्धि—जानो; तृष्णा—लोभ से; सङ्ग—संगति से; समुद्भवम्—उत्पन्न; तत्—वह; निबध्नाति— बाँधता है; कौन्तेय—हे कुन्तीपुत्र; कर्म-सङ्गेन—सकाम कर्म की संगति से; देहिनम्— देहधारी को ।.
 
अनुवाद
 
 हे कुन्तीपुत्र! रजोगुण की उत्पत्ति असीम आकांक्षाओं तथा तृष्णाओं से होती है और इसी के कारण से यह देहधारी जीव सकाम कर्मों से बँध जाता है।
 
तात्पर्य
 रजोगुण की विशेषता है, पुरुष तथा स्त्री का पारस्परिक आकर्षण। स्त्री पुरुष के प्रति और पुरुष स्त्री के प्रति आकर्षित होता है। यह रजोगुण कहलाता है। जब इस रजोगुण में वृद्धि हो जाती है, तो मनुष्य भौतिक भोग के लिए लालायित होता है। वह इन्द्रियतृप्ति चाहता है। इस इन्द्रियतृप्ति के लिए वह रजोगुणी मनुष्य समाज में या राष्ट्र में सम्मान चाहता है और सुन्दर सन्तान, स्त्री तथा घर सहित सुखी परिवार चाहता है। ये सब रजोगुण के प्रतिफल हैं। जब तक मनुष्य इनकी लालसा करता रहता है, तब तक उसे कठिन श्रम करना पड़ता है। अत: यहाँ पर यह स्पष्ट कहा गया है कि मनुष्य अपने कर्मफलों से सम्बद्ध होकर ऐसे कर्मों से बँध जाता है। अपनी स्त्री, पुत्रों तथा समाज को प्रसन्न करने तथा अपनी प्रतिष्ठा बनाये रखने के लिए मनुष्य को कर्म करना होता है। अतएव सारा संसार ही न्यूनाधिक रूप से रजोगुणी है। आधुनिक सभ्यता में रजोगुण का मानदण्ड ऊँचा है। प्राचीन काल में सतोगुण को उच्च अवस्था माना जाता था। यदि सतोगुणी लोगों को मुक्ति नहीं मिल पाती, तो जो रजोगुणी हैं उनके विषय में क्या कहा जाये?
 
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