उनका विश्वास है कि इन्द्रियों की तुष्टि ही मानव सभ्यता की मूल आवश्यकता है। इस प्रकार मरणकाल तक उनको अपार चिन्ता होती रहती है। वे लाखों इच्छाओं के जाल में बँधकर तथा काम और क्रोध में लीन होकर इन्द्रियतृप्ति के लिए अवैध ढंग से धनसंग्रह करते हैं।
तात्पर्य
आसुरी लोग मानते हैं कि इन्द्रियों का भोग ही जीवन का चरमलक्ष्य है और वे आमरण इसी विचारधारा को धारण किये रहते हैं। वे मृत्यु के बाद जीवन में विश्वास नहीं करते। वे यह नहीं मानते कि मनुष्य को इस जगत् में अपने कर्म के अनुसार विविध प्रकार के शरीर धारण करने पड़ते हैं। जीवन के लिए उनकी योजनाओं का अन्त नहीं होता और वे एक के बाद एक योजना बनाते रहते हैं जो कभी समाप्त नहीं होतीं। हमें ऐसे एक व्यक्ति की ऐसी आसुरी मनोवृत्ति का निजी अनुभव है, जो मरणकाल तक अपने वैद्य से अनुनय-विनय करता रहा कि वह किसी तरह उसके जीवन की अवधि चार वर्ष बढ़ा दे, क्योंकि उसकी योजनाएँ तब भी अधूरी थीं। ऐसे मूर्ख लोग यह नहीं जानते कि वैद्य क्षणभर भी जीवन को नहीं बढ़ा सकता। जब मृत्यु का बुलावा आ जाता है, तो मनुष्य की इच्छा पर ध्यान नहीं दिया जाता। प्रकृति के नियम किसी को निश्चित अवधि के आगे क्षणभर भी भोग करने की अनुमति प्रदान नहीं करते।
आसुरी मनुष्य, जो ईश्वर या अपने अन्तर में स्थित परमात्मा में श्रद्धा नहीं रखता, केवल इन्द्रियतृप्ति के लिए सभी प्रकार के पापकर्म करता रहता है। वह नहीं जानता कि उसके हृदय के भीतर एक साक्षी बैठा है। परमात्मा प्रत्येक जीवात्मा के कार्यों को देखता रहता है। जैसा कि उपनिषदों में कहा गया है कि एक वृक्ष में दो पक्षी बैठे हैं, एक पक्षी कर्म करता हुआ टहनियों में लगे सुख-दु:ख रूपी फलों को भोग रहा है और दूसरा उसका साक्षी है। लेकिन आसुरी मनुष्य को न तो वैदिकशास्त्र का ज्ञान है, न कोई श्रद्धा है। अतएव वह इन्द्रियभोग के लिए कुछ भी करने के लिए अपने को स्वतन्त्र मानता है, उसे परिणाम की परवाह नहीं रहती।
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