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भगवद्-गीता  »  अध्याय 18: उपसंहार—संन्यास की सिद्धि  »  श्लोक 17
 
 
श्लोक  18.17 
यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते ।
हत्वापि स इमाँल्ल‍ोकान्न हन्ति न निबध्यते ॥ १७ ॥
 
शब्दार्थ
यस्य—जिसके; —नहीं; अहङ्कृत:—मिथ्या अहंकार का; भाव:—स्वभाव; बुद्धि:—बुद्धि; यस्य—जिसकी; —कभी नहीं; लिप्यते—आसक्त होता है; हत्वा— मारकर; अपि—भी; स:—वह; इमान्—इस; लोकान्—संसार को; —कभी नहीं; हन्ति—मारता है; —कभी नहीं; निबध्यते—बद्ध होता है ।.
 
अनुवाद
 
 जो मिथ्या अहंकार से प्रेरित नहीं है, जिसकी बुद्धि बँधी नहीं है, वह इस संसार में मनुष्यों को मारता हुआ भी नहीं मारता। न ही वह अपने कर्मों से बँधा होता है।
 
तात्पर्य
 इस श्लोक में भगवान् अर्जुन को बताते हैं कि युद्ध न करने की इच्छा अहंकार से उत्पन्न होती है। अर्जुन स्वयं को कर्ता मान बैठा था, लेकिन उसने अपने भीतर तथा बाहर परम (परमात्मा) के निर्देश पर विचार नहीं किया था। यदि कोई यह न जाने कि कोई परम निर्देश भी है, तो वह कर्म क्यों करे? लेकिन जो व्यक्ति कर्म के उपकरणों को, कर्ता रूप में अपने को तथा परम निर्देशक के रूप में परमेश्वर को मानता है, वह प्रत्येक कार्य को पूर्ण करने में सक्षम है। ऐसा व्यक्ति कभी मोहग्रस्त नहीं होता। जीव में व्यक्तिगत कार्यकलाप तथा उसके उत्तरदायित्व का उदय मिथ्या अहंकार से तथा ईश्वरविहीनता या कृष्णभावनामृत के अभाव से होता है। जो व्यक्ति कृष्णभावनामृत में परमात्मा या भगवान् के आदेशानुसार कर्म करता है, वह वध करता हुआ भी वध नहीं करता। न ही वह कभी ऐसे वध के फल भोगता है। जब कोई सैनिक अपने श्रेष्ठ अधिकारी सेनापति की आज्ञा से वध करता है, तो उसको दण्डित नहीं किया जाता। लेकिन यदि वही सैनिक स्वेच्छा से वध कर दे, तो निश्चित रूप से न्यायालय द्वारा उसका निर्णय होता है।
 
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