हिंदी में पढ़े और सुनें
भगवद्-गीता  »  अध्याय 3: कर्मयोग  »  श्लोक 17
 
 
श्लोक  3.17 
यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्त‍श्च मानवः ।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते ॥ १७ ॥
 
शब्दार्थ
य:—जो; तु—लेकिन; आत्म-रति:—आत्मा में ही आनन्द लेते हुए; एव—निश्चय ही; स्यात्—रहता है; आत्म-तृप्त:—स्वयंप्रकाशित; —तथा; मानव:—मनुष्य; आत्मनि—अपने में; एव—केवल; —तथा; सन्तुष्ट:—पूर्णतया सन्तुष्ट; तस्य— उसका; कार्यम्—कर्तव्य; —नहीं; विद्यते—रहता है ।.
 
अनुवाद
 
 किन्तु जो व्यक्ति आत्मा में ही आनन्द लेता है तथा जिसका जीवन आत्म-साक्षात्कार युक्त है और जो अपने में ही पूर्णतया सन्तुष्ट रहता है उसके लिए कुछ करणीय (कर्तव्य) नहीं होता।
 
तात्पर्य
 जो व्यक्ति पूर्णतया कृष्णभावनाभावित है और अपने कृष्णभावनामृत के कार्यों से पूर्णतया सन्तुष्ट रहता है उसे कुछ भी नियत कर्म नहीं करना होता। कृष्णभावनाभावित होने के कारण उसके हृदय का सारा मैल तुरन्त धुल जाता है, जो हजारों-हजारों यज्ञों को सम्पन्न करने पर ही सम्भव हो पाता है। इस प्रकार चेतना के शुद्ध होने से मनुष्य परमेश्वर के साथ अपने सम्बन्ध के प्रति पूर्णतया आश्वस्त हो जाता है। भगवत्कृपा से उसका कार्य स्वयंप्रकाशित हो जाता है; अतएव वैदिक आदेशों के प्रति उसका कर्तव्य नि:शेष हो जाता है। ऐसा कृष्णभावनाभावित व्यक्ति कभी भी भौतिक कार्यों में रुचि नहीं लेता और न ही उसे सुरा, सुन्दरी तथा अन्य प्रलोभनों में कोई आनन्द मिलता है।
 
शेयर करें
       
 
  All glories to Srila Prabhupada. All glories to  वैष्णव भक्त-वृंद
  Disclaimer: copyrights reserved to BBT India and BBT Intl.
   
  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥