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भगवद्-गीता  »  अध्याय 5: कर्मयोग—कृष्णभावनाभावित कर्म  »  श्लोक 14
 
 
श्लोक  5.14 
न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभु: ।
न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥ १४ ॥
 
शब्दार्थ
—नहीं; कर्तृत्वम्—कर्तापन या स्वामित्व को; —न तो; कर्माणि—कर्मों को; लोकस्य—लोगों के; सृजति—उत्पन्न करता है; प्रभु:—शरीर रूपी नगर का स्वामी; —न तो; कर्म-फल—कर्मों के फल से; संयोगम्—सम्बन्ध को; स्वभाव:—प्रकृति के गुण; तु—लेकिन; प्रवर्तते—कार्य करते हैं ।.
 
अनुवाद
 
 शरीर रूपी नगर का स्वामी देहधारी जीवात्मा न तो कर्म का सृजन करता है, न लोगों को कर्म करने के लिए प्रेरित करता है, न ही कर्मफल की रचना करता है। यह सब तो प्रकृति के गुणों द्वारा ही किया जाता है।
 
तात्पर्य
 जैसा कि सातवें अध्याय में बताया जाएगा जीव तो परमेश्वर की शक्तियों में से एक है, किन्तु वह भगवान् की अपरा प्रकृति है जो पदार्थ से भिन्न है। संयोगवश परा प्रकृति या जीव अनादिकाल से प्रकृति (अपरा) के सम्पर्क में रहा है। जिस नाशवान शरीर या भौतिक आवास को वह प्राप्त करता है वह अनेक कर्मों और उनके फलों का कारण है। ऐसे बद्ध वातावरण में रहते हुए मनुष्य अपने आपको (अज्ञानवश) शरीर मानकर शरीर के कर्मफलों का भोग करता है। अनन्त काल से उपार्जित यह अज्ञान ही शारीरिक सुख-दुख का कारण है। ज्योंही जीव शरीर के कार्यों से पृथक् हो जाता है त्योंही वह कर्मबन्धन से भी मुक्त हो जाता है। जब तक वह शरीर रूपी नगर में निवास करता है तब तक वह इसका स्वामी प्रतीत होता है, किन्तु वास्तव में वह न तो इसका स्वामी होता है और न इसके कर्मों तथा फलों का नियन्ता ही। वह तो इस भवसागर के बीच जीवन-संघर्ष में रत प्राणी है। सागर की लहरें उसे उछालती रहती हैं, किन्तु उन पर उसका वश नहीं चलता। उसके उद्धार का एकमात्र साधन है कि दिव्य कृष्णभावनामृत द्वारा समुद्र के बाहर आए। इसी के द्वारा समस्त अशान्ति से उसकी रक्षा हो सकती है।
 
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