हिंदी में पढ़े और सुनें
भगवद्-गीता  »  अध्याय 6: ध्यानयोग  »  श्लोक 41
 
 
श्लोक  6.41 
प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वती: समा: ।
श‍ुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते ॥ ४१ ॥
 
शब्दार्थ
प्राप्य—प्राप्त करके; पुण्य-कृताम्—पुण्य कर्म करने वालों के; लोकान्—लोकों में; उषित्वा—निवास करके; शाश्वती:—अनेक; समा:—वर्ष; शुचीनाम्—पवित्रात्माओं के; श्री-मताम्—सम्पन्न लोगों के; गेहे—घर में; योग-भ्रष्ट:—आत्म-साक्षात्कार के पथ से च्युत व्यक्ति; अभिजायते—जन्म लेता है ।.
 
अनुवाद
 
 असफल योगी पवित्रात्माओं के लोकों में अनेकानेक वर्षों तक भोग करने के बाद या तो सदाचारी पुरुषों के परिवार में या कि धनवानों के कुल में जन्म लेता है।
 
तात्पर्य
 असफल योगियों की दो श्रेणियाँ हैं—एक वे जो बहुत थोड़ी उन्नति के बाद ही भ्रष्ट होते हैं; दूसरे वे जो दीर्घकाल तक योगाभ्यास के बाद भ्रष्ट होते हैं। जो योगी अल्पकालिक अभ्यास के बाद भ्रष्ट होता है वह स्वर्गलोक को जाता है जहाँ केवल पुण्यात्माओं को प्रविष्ट होने दिया जाता है। वहाँ पर दीर्घकाल तक रहने के बाद उसे पुन: इस लोक में भेजा जाता है जिससे वह किसी सदाचारी ब्राह्मण वैष्णव के कुल में या धनवान वणिक के कुल में जन्म ले सके।

योगाभ्यास का वास्तविक उद्देश्य कृष्णभावनामृत की सर्वोच्च सिद्धि प्राप्त करना है, जैसा कि इस अध्याय के अन्तिम श्लोक में बताया गया है, किन्तु जो इतने अध्यवसायी नहीं होते और जो भौतिक प्रलोभनों के कारण असफल हो जाते हैं, उन्हें अपनी भौतिक इच्छाओं की पूर्ति करने की अनुमति दी जाती है। तत्पश्चात् उन्हें सदाचारी या धनवान परिवारों में सम्पन्न जीवन बिताने का अवसर प्रदान किया जाता है। ऐसे परिवारों में जन्म लेने वाले इन सुविधाओं का लाभ उठाते हुए अपने आपको पूर्ण कृष्णभावनामृत तक ऊपर ले जाते हैं।

 
शेयर करें
       
 
  All glories to Srila Prabhupada. All glories to  वैष्णव भक्त-वृंद
  Disclaimer: copyrights reserved to BBT India and BBT Intl.
   
  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥