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भगवद्-गीता  »  अध्याय 7: भगवद्ज्ञान  »  श्लोक 11
 
 
श्लोक  7.11 
बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम् ।
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ ॥ ११ ॥
 
शब्दार्थ
बलम्—शक्ति; बल-वताम्—बलवानों का; —तथा; अहम्—मैं हूँ; काम— विषयभोग; राग—तथा आसक्ति से; विवर्जितम्—रहित; धर्म-अविरुद्ध:—जो धर्म के विरुद्ध नहीं है; भूतेषु—समस्त जीवों में; काम:—विषयी जीवन; अस्मि—हूँ; भरत- ऋषभ—हे भारतवंशियों में श्रेष्ठ! ।.
 
अनुवाद
 
 मैं बलवानों का कामनाओं तथा इच्छा से रहित बल हूँ। हे भरतश्रेष्ठ (अर्जुन) ! मैं वह काम हूँ, जो धर्म के विरुद्ध नहीं है।
 
तात्पर्य
 बलवान पुरुष की शक्ति का उपयोग दुर्बलों की रक्षा के लिए होना चाहिए, व्यक्तिगत आक्रमण के लिए नहीं। इसी प्रकार धर्म-सम्मत मैथुन सन्तानोत्पति के लिए होना चाहिए, अन्य कार्यों के लिए नहीं। अत: माता पिता का उत्तरदायित्व है कि वे अपनी सन्तान को कृष्णभावनाभावित बनाएँ।
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥